मेरी यह पुस्तक रिश्तों की परख सिर्फ काव्य रचनाएं नहीं हमारा कल आज और कल को बयां करता दर्पण है।यह संग्रह है उन अनमोल यादों का जिन्हे तुमने जिया है यह भंडार है मां के नैनो से छलके आंसुओ और पिता के पैर के छालों का। बैग के टिफिन में हर रोज बदला हुआ खाना और अपनों से उम्मीद लगाना तो तभी संभव है न जब हमने फूलों के पौधे रोपित किए हों।कहते हैं कि बिखरते रिश्तों को सहेज लेने से परिवार की उम्र बढ़ जाती है। पिता का स्वाभिमान और मां का भरोसा हो तुम बहन की जिम्मेदारी और पत्नी का गर्व हो तुम अपने बच्चों की जिम्मेदारी भी हो तुम। अपने शहरों और पीछे छोड़ आए गांवों की आज भी इक आस हो तुम। शमशान में राख बन जाने से पहले अगर किसी को खुशी दी जा सकती है तो क्यूं न बना लें हर दिन को यादगार। मेरे आंगन की उजरिया मेरी बेटी को देखूं तो बाकियों की सुरक्षा और अस्मिता की सुरक्षा भी तो मेरी ही जिम्मेदारी हुई न क्यूं भूल जाऊं की आज जहां खड़ा हूं उनमें कितनों का आशीर्वाद छिपा है। क्यूं भूल जाऊं पिता के लड़खड़ाते पैरों के बावजूद सिर्फ हमारे भविष्य को संजोने के लिए काम की फिक्र और मां का सिकुड़े आंचल के साथ बाजार से मेरे लिए खिलौने ढूंढना।स्वयं को पहचानने और कलरव और काग के सुरों का अंतर करवाती एक पीढ़ी के संघर्षों को बतलाती और अनंत आकाश को चीरकर सपनो को सच करने के कुछ रास्ते बतलाती से लेकर घर की बची आखिरी पाई को दर्शाती पंक्तियों से हृदय को प्रफुल्लित और अश्रु धार को रोकने का माध्यम है यह पुस्तक।यह पुस्तक मैं उन सभी को समर्पित करता हूं जिन्हें रिश्तों के अहसास हों मां को फिर से हंसता हुआ देखना चाहते हैं पिता की लाठी बनकर संग चलना चाहते हैं और हौसलों से है उड़ान को महसूस कर सकें। सम्भव है कि कुछ सहज न हो लेकिन मेरे और आपके कल को बयां करता और कल की फिक्र दिखाता एक अनोखा अहसास है ये।
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