संगीत शास्त्र एवं वाद्य सिद्धान्त

About The Book

संगीत मुख्य रूप से मौखिक एवं प्रदर्शनात्मक कला है। शिष्य गुरु मुख से सुनकर ही याद करके सीखता है। प्राचीन समय में शिष्य गुरु गृह में रहकर ही संगीत की साधना करता था। प्राचीन समय से भारतीय संस्कृति से गुरु का पद आदरणीय रहा है। संगीत में गुरु का महत्त्व आज भी है क्योंकि शास्त्रों में कितना भी संगीत लिख दिया जाए उसे सीखने के लिए गुरु की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही घराना परम्परा का भी इसमें बहुत योगदान है। यदि किसी को सितार के बाज की तकनीक अथवा शैली आदि पर शोध-कार्य करना हो तो घरानों को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। प्रत्येक घराने की गायन-वादन शैली का एक विशिष्ट ढंग व विशेष रीति होती है। आवाज़ का लगाव बंदिश गाने की पद्धति आलापचारी और तान गाने की क्रिया की विविधता इस प्रकार की विशेषताएँ सभी की अलग-अलग होती हैं। निःसन्देह ही इनको गुरु मुख से ही सीखा अथवा जाना जा सकता है परन्तु इनको लिपिबद्ध करने के लिए शास्त्रा परम्परा का ही निर्वाह करना पड़ेगा। हमारे भारतीय संगीत में राग के कुछ नियम निश्चित हैं उनका रूप बंदिशों द्वारा स्पष्ट हो जाता है। बंदिशें राग के नियमों में बंधी हुई रचनाएं हैं। बंदिशों में राग की आकृति निहित रहती है। हमारी हिन्दुस्तानी पद्धति चीजों पर आधारित है तथा इन्हीं चीजों को हमारे शास्त्रों का मूल आधार माना जाता है। प्रस्तुत शोध-कार्य में मुख्यतः इसी विषय पर चर्चा की गई है कि हमारे हिन्दुस्तानी संगीत शास्त्र का स्वरूप किस प्रकार का है और उसमें भी संगीत के वाद्य पक्ष से सम्बन्धित सिद्धान्तों की व्याख्या एवं व्यवहारिकता क्या है। इस दृष्टि से यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभाजित की गई है। प्रथम अध्याय-नाद का अर्थ एवं व्यवहारिकता द्वितीय अध्याय-संगीत का सैद्धान्तिक पक्ष तृतीय अध्याय-संगीत के वाद्य-पक्ष के सैद्धान्तिक तत्त्व चतुर्थ अध्याय-वाद्यों के वर्गीकरण की परम्परा और पंचम अध्याय-वाद्य-वृन्द के सिद्धान्त एवं व्यवहारिकता ।
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