साहित्य को समाज का दपर्ण माना जाता है किन्तु वह समाज का दिग्दर्शन तभी कर पायेगा जब समाज का घटक साहित्य का अवलोकन करे साहित्य को पढ़े चिन्तन मनन करे। साहित्य शब्द मात्र का मंत्र जाप तो दिग्दर्शन नहीं कर देगा । साहित्य के सृजन पठन अध्ययन मनन चिन्तन के लिए पर्याप्त वक्त की जरूरत होती है जो आज के आदमी के पास सबसे कम है । यही कारण है कि इस भौतिकवादी मनोवृत्ति के कारण चिन्तन दर्शन तथा रीतिरिवाज परम्पराएँ लुप्त हो रही हैं।
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