*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹197
₹250
21% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के विख्यात वकील थे। माता भुवनेश्वरी देवी अत्यंत सरल एवं धार्मिक विचारों की महिला थी। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से ही विलक्षण थी। मां से रामायण महाभारत की कहानी सुनना नरेन्द्र को बहुत अच्छा लगता था। पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने वाले पिता विश्वनाथ दत्त उन्हें अंग्रेजी शिक्षा देकर पाश्चात्य सभ्यता में रंगना चाहते थे किन्तु ईश्वर ने तो बालक को खास प्रयोजन के लिए अवतरित किया था। परिवार में धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गए। माता-पिता के संस्कारों के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और प्राप्त करने की लालसा होने लगी थी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की असीम कृपा से उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ। 25 वर्ष की उम्र में नरेन्द्र गेरुआ वस्त्र धारण कर विश्व भ्रमण को निकल पड़े। 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने 20 मिनट के व्याख्यान से वहां मौजूद हजारों लोगों को वे मंत्र मुग्ध कर दिए। व्याख्यान से प्रभावित होकर वहां मौजूद अनेकों लोग उनके शिष्य बन गए। हालत ऐसा बन गया कि जब सभा में शोर होता तो उन्हें स्वामी जी का भाषण सुनने का आश्वासन देकर शांत करवाया जाता था। अपने भाषण से स्वामी जी ने यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दू धर्म में सभी धर्मों को समाहित करने की क्षमता है। स्वामी जी के सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि आज विश्व भर में है। अपने जीवन के अंतिम क्षण में उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है। 4 जुलाई 1902 को ध्यानावस्था में ही स्वामी जी का अलौकिक शरीर परमात्मा में विलीन हो गया। बेलूर में गंगा किनारे चंदन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गई। अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहां एक मंदिर बनवाया और पूरे विश्व में स्वामी जी एवं उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। स्वामी जी का आदर्श- मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है।