जब एक समाजशास्त्री दुनिया को देखता है तो उसे सामाजिक दृष्टि से देखने की कोशिश करता है । जब उसकी नजर के सामने समाज के विभिन्न आयाम आते हैं तो व्यक्ति और सामाजिक समूह के बीच संबंधों की तलाश करता है जिन्हें वह पहचान सके। जाति लिंग वर्ग समाज और राष्ट्र के बीच जो संबंध है वह सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं को किस रूप में देखते हैं जिन्हें पहचाना जा सके उन्हें सामाजिक रूप में समझने का प्रयास करता है। समाज की विकास यात्रा में संघर्ष और समन्वय का अस्तित्व अनिवार्य है परंतु संघर्ष और समन्वय का पृथक अस्तित्व नहीं होता। संघर्ष की अधिकता और समन्वय का अभाव समाज में अस्तित्व के लिए चुनौती उपस्थित करता है ।यह समाज के स्वरूप को खंडित कर सकता है ।समाज के इस सत्य या यथार्थ की अभिव्यक्ति आवश्यक है ।परंतु आधुनिकता व तथाकथित प्रगतिशीलता के चिंतन के प्रभाव में सामाजिक यथार्थ की संपूर्णता को नकारने और अलगाव की इकाई को स्वीकृति प्रदान करने की प्रवृत्ति स्थापित हो चुकी है।
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