प्रस्तुत पुस्तक में इस बात पर अत्यधिक बल दिध गया है कि न्यायिक सक्रियता एवं जनहितवाद में सामाजिक न्याय की प्राप्ति में न्यायपालिका की भूमिका को कितना आवश्यर्क बना दिया हैंघ् क्या न्यायपालिका को इसी प्रकार न्यायिक सक्रियता के क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाने एवं जनहित सम्बन्धी मामलों में कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका से आगे बढ़कर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित होना चाहिए या फिर ऐसी कोई सीमा रेखा निर्धारित की जानी न चाहिएए जहाँ तक सक्रियता की प्रवृति अपनाना उचित माना जाएंघ् जो न्यायिक सक्रियता की उत्पति के बाद व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका में विवाद एव टकराव के विषय बने हुए हैं तथा जिसके कारण शासन केए ये दोनों स्तम्भ कई बार आमने.सामने आ चुके हैं तथा यह भी पता लगाने का प्रयास किया जाएगा कि सामाजिक न्याय की प्राप्ति में व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका दोनों एक साझा दृष्टिकोण अपना सके तथा अपने.अपने क्षेत्र में अपनी भूमिका का निर्वहन पूरी ईमानदारी व कर्त्तव्यपरायणता के साथ कर सकें द्य न्यायिक सक्रियता एवं जनहितवाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न मामलों में सुनाए गए निर्णयों की सन् 4990 से लेकर 2045 तक सुव्यवस्थित रूप से केस स्टडी की जायेगी तथा इन निर्णयों के सन्दर्भ में यह भी देखा जाएगा कि सामाजिक न्याय की प्राप्ति में ये कितने सफल साबित हुए हैं!
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