इस देश के विशुद्ध ज्ञान के क्षेत्र में दो सामानान्तर ज्ञान की धाराएँ निगम और आगम की सुदूर अतीत से प्रवाहित हो रही है। परम्परा दोनों का मूल स्रोत-परमात्मा के दो रूपों ब्रह्मा और शिव को मानती है। तात्पर्थ यह है दोनों ही धाराएँ मूलतः एक ही तत्व से निसृत है एक है। एक सिद्धान्त प्रमुख और दूसरी प्रयोग प्रधान है इसी के कारण दोनों में आचार भेद है। आगम-निगम इन ज्ञान की दोनों ही धाराओं में प्रमाण वही मान्य है प्राचीन और नवीन अनुभवों से प्रमाणित है- वेद कहता है पूर्वर्भिः ऋषिभिः नूतनै उतईड्य: और अद्वैत शैव दर्शन तो डंके की चोट पर अपने को प्रमातृ प्रधान दर्शन घोषित करता है कि जिज्ञासु का अपना स्वयं का अनुभव ही पूर्ण प्रमाण है। दर्शन और अर्थात् अपरोक्ष अनुभूति। वेद कहता है- एतद्वैतद्-एकना इदं विभूव सर्वम् (ऋग्वेद) आगम कहता है- एकमेव हितत् तत्वम एक सृष्टि मयं बीजम् दो में कोई आधार भूत अन्तर है नहीं वेद उपासना के रूप में यज्ञ विद्या है- प्राण विद्या है तन्त्र प्रयोगों का आधार मानता- प्राक् प्राणे संवित् परिणता । यही सांवत् ही स्वातन्त्रय शक्ति के रूप में अभिव्यक्त वाक् है। यही उस परमसत्ता के उल्लास की हिलोर है जब बहिर्मुखी है तब नादरूपा है और अन्तर्मुखी है तब बिन्दु है है वहीं यही वेद का शुद्ध ज्ञान है जो ब्रह्म है और तन्त्र को शुद्ध बोध है जो महेश्वर रूप है। यही गुरु-शिष्य रूप में है- गुरू शिष्य पदेस्थित्या स्वयं देवो महेश्वरः यह स्वयं शिव ने देवी को स्वच्छन्द तन्त्र में बताया है। यही बात बाद को मानुस रूप में भैरव कहे जाने वाले आचार्य अभिनव गुप्त तन्त्रालोक में कहते हैं
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