जीव मानव जीवन मे वैज्ञानिकता आत्मोन्नति व आध्यात्मिकता की राह को अपना कर चेतना को ऊर्ध्वगामी कर के ई वरत्व की प्राप्ति कर सकता है। जीवन ही चेतना का प्रमाण और प्रतीक है तथा यही सत्यव एवं सौन्दर्य का स्वरूप है। परम चेतना के निर्माणकारी तत्व जैसे प्रेम करूणा सकारात्मकता श्रद्धा तथा वि वास को अपने जीवन में भर कर ही मानव अपने परम् उत्कर्श की वत नींव रख सकता हैं। चेतना स्वयं ही एक रहस्य के आवरण मे लिपटी हुई है और मानव जीवन में ही चेतना के विभिन्न रहस्य छुपे है। मानवीय जीवन में अदृ य चेतना के कण कर्म के साँचे में संघनित हुए जिस के परिणामस्वरूप कर्मफल विधान बना। कर्म की गति गहन से गहनतम होती गई और इसी गहनतम कर्म गति के मूल में वि वव्यापी चेतना की हलचल व्यक्त होती गई। मानव चेतना के अन्य रहस्यमय तत्व जैसे भाग्य पुरू ार्थ आदि का भी आधार यही हैं। यही संस्कार बनाती है जो उस जीव को पुनर्जन्म की प्राप्ति कराते हैं । आज मानव अत्यंत पीड़ित व असंतुश्ट है। उसके पास विभिन्न तरह के सुख साधनों के समस्त उपकरण होने के बावजूद भी वह मानसिक व शारीरिक रूप से दुखी बेचैन व अशांत है। उसका जीवन निराशा संघ अवसाद व अतृप्ति का शिकार होता जा रहा है। इन समस्याओं का कारण चेतना का लगातार हो रहा वैविक अवरोहण है। इसके समाधान हेतु यह आव यक है कि हम विज्ञान और अध्यात्म दोनों के बीच तालमेल की संभावना को तला । प्रस्तुत किताब में मानव चेतना के आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष के समन्वय का यही प्रयास है। यह सिद्ध करता है कि विज्ञान प्रदत्त भाक्तियाँ नैतिक एवं आध्यात्मिक चेतना के अधीन रह कर ही मानव कल्याण में उपयोगी होंगी। यदि मानवता को विनाका से बचाना है तो विज्ञान पर मनुश्य को नैतिक एवं आध्यात्मिक चेतना भाक्ति का नियंत्रण स्थापित करना ही होगा। मानव चेतना का उत्कर्श ही देळा व समस्त पृथ्वी पर भाांति प्रेम व विव-बंधुत्व की स्थापना कर सकेगा। मानव चेतना का ज्ञान मानव को आधि व व्याधि से मुक्त करने मे सहायक सिद्ध होगा और यह मानव चेतना के अनुसंधान से ही संभव हो पाएगा।
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