कड़वा मीठा नीम


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About The Book

मेरी पनाहगाह और मैं प्राचीन भारत की राजधानी क़न्नौज जो वर्तमान में उत्तरप्रदेश का एक जिला कहलाता है में 5 जून 1944 की रात को सहमें हुए इंसानों के दरमियां एक बच्चे ने जन्म लिया। दिए की लहराती हुई रौशनी अपनी अधखुली आँखों से लगातार देख रहा था मानों उस लौ में वो कुछ तलाश रहा हो। बक़ौल रज़्ज़ाक़ आदिल जब से मैंने होश सम्हाला है देख रहा हूँ इस ज़मींन पर छाए हुए नीले गुंबद तले अनगिनत इंसान क़ैद हैं जिन्हें दुःख दर्द के भूखे दरिंदे दिन-रात नोंच रहे हैं और इंसान उनके आगे बेबस लाचार हैं। ना तो इन दरिंदों को मारा जा सकता हैं और न ही इनसे निजात पाना आसान है। उन अनगिनत इंसानों में एक मैं भी हूँ मेरी पीछे भी दरिंदों की भीड़ है जो अक्सर मुझे लहूलुहान कर देती है। लेकिन आज मैंने उनसे बचने के लिए एक पनाहगाह ढूँढ ली है जहाँ वे नहीं आ सकते। जब तक मैं यहाँ रहता हूँ उनसे सुरक्षित हूँ अपने आपकों महफ़ूज़ समझता हूँ। और ये पनाहगाह मेरा मसकन मेरी शायरी है जहाँ मेरी अपनी बसाई हूई दुनियाँ आबाद है जिसमें प्यार है मोहब्बत है खु़शी है (झूठ मूठ की ही सही) परंतु मैं इस दुनियाँ में जी सकता हूँ. इसकी फ़ज़ा में लताफ़त है। जिसमें आसानी से सांस ली जा सकती है शायद. यही सबब है कि ये बाहर की दुनियाँ के बोझल और दीमक लगे हुए फ़लसफ़ों का बोझ सहन नही कर सकती। ये उन तमाम बंदिशों नफ़रतों और सत्ता के लालचियों से पाक है जो इंसानी दुःख-दर्द को बढ़ाने का वसीला बने हुए हैं। इस दुनियाँ में केवल मेरा अक्स है-अच्छा बुरा मैंने अपने आपको जैसा पाया उसमें स्वयं को समो दिया है। ये मेरा रूप है मुकम्मल रूप जिससे मिट्टी की सुगंध उड़ती है और चारों ओर फैल जाती है यही खु़श्बू दिल दिमाग़ और रूह को रूहानी सुकून देती है। -तारिक़ शाहीन-.
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