उन्नीसवीं शताब्दी का भारत और खासकर बंगाल ने एक से एक युगान्तरकारी प्रतिभाओं को जन्म दिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर यानी जोड़ासाँको के ठाकुर परिवार के शर्मीले नवयुवक से नोबल पुरस्कार और शान्ति निकेतन तक की यात्रा करने वाले गुरुदेव उस सदी के उन मनीषियों में से थे जिन्होंने भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक जगत को बौद्धिक और एक हद तक राजनैतिक रूप से भी प्रभावित किया। उज्ज्वल भट्टाचार्य द्वारा लिखी उनकी यह जीवनी न तो उनकी दैनंदिनी है और न ही घटनाओं का कोई कोलाज। इस किताब में उन्होंने बहुत करीने से रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गुरुदेव टैगोर बनने की प्रक्रिया को उस दौर की ऐतिहासिक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक हकीकत के बरक्स तलाशने की कोशिश की है। इस प्रक्रिया में वह भारतीय आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में उनकी जीवन यात्रा और वैचारिक व सांस्कृतिक विकासक्रम को देखने का ज़रूरी उपक्रम करते हुए आज के दौर के भारत और विश्व के संदर्भ में टैगोर की प्रासंगिकता को बखूबी रेखांकित करते हैं। यह किताब हिन्दी के बौद्धिक और सामाजिक जगत में रवीन्द्रनाथ के बहाने आधुनिकता पर एक नई और अक्सर टाल दी जाने वाली बहस को फिर से केन्द्र में लाने की कोशिश तो करती ही है साथ में अपनी रोचकता प्रवाह और सहज किस्सागोई के कारण नए पाठक के लिए टैगोर के जीवन और रचना-संसार में प्रवेश की राह भी खोलती है। कवि लेखक और अनुवादक उज्ज्वल भट्टाचार्य आधे वक़्त जर्मनी में रहते हैं और बाकी भारत में। पिछले चार दशकों के दौरान वह जर्मनी में रेडियो पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। इस दौरान उन्होंने जर्मन तथा अन्य भाषाओं से लगातार कविताओं का अनुवाद किया है। ब्रेश्ट की 101 कविताओं के अनुवाद की एक किताब 'एकोत्तरशती' और विश्व कविता से 22 कवियों की सौ कविताओं का एक अनुवाद 'लम्हे लौट आते हैं
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