आदिकाल और मध्यकाल के कवियों का आलोचनात्मक पाठ भारतीय जनमानस में अगर धर्म के बाद किसी भावना को बहुत साफ ढंग से देखा जा सकता है तो वह कविता-प्रेम है। यही कारण है कि भारत में साहित्य की अन्य विधाओं के सापेक्ष कविता की परंपरा न सिर्फ बहुत लंबी गहरी और व्यापक रही है बल्कि उसने भारतीय समाज के विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक युगों को वाणी भी दी है। यही नहीं उसने एक सामाजिक शक्ति के रूप में अपनी निर्णायक भूमिका भी निभाई है।इस पुस्तक में हिंदी कविता के दो आरंभिक और महत्त्वपूर्ण युगों का विवेचन किया गया है एक आदिकाल और दूसरा मध्यकाल। अब तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी कविता का उद्भव सातवीं-आठवीं शताब्दी के आसपास हुआ जिसकी पृष्ठभूमि में पालि प्राकृत और अपभ्रंश का बड़ा योगदान है। आदिकालीन काव्य में अपभ्रंश का बहुत रचनात्मक इस्तेमाल मिलता है। इस दौर की कविता की मूल संवेदना भक्ति प्रेम शौर्य वैराग्य और नीति आदि से मिल-जुलकर बनी है।आदिकालीन काव्य के बाद भक्तियुग में कबीर सूर तुलसी तथा जायसी जैसे महान कवियों की अगुआई में काव्य रचा गया। संवेदना और शील की दृष्टि से इस युग में भी कई काव्य-धाराएँ मौजूद थीं। संत कवियों की वाणी की व्याप्ति दूर-दूर तक थी। ये लोग अक्सर भ्रमणरत रहते थे इसलिए इनकी भाषा में बहुत विविधता मिलती है।इस पुस्तक में इन दोनों युगों की कविता की विस्तार से तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में विवेचना की गई है। दोनों युगों के महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं उनके जीवन-वृत्त और उनके युग की विशेषताओं की जानकारी से समृद्ध इस पुस्तक से छात्रों को निश्चय ही अत्यंत लाभ होगा। हिंदी साहित्य के विद्वान और महत्त्वपूर्ण कवि हेमंत कुकरेती ने अपने अध्यापन-अनुभव को समेटते हुए इस पुस्तक को छात्रों के लिए उपादेय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
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