मैं कभी-कभी एक प्रयोग करता हूं। पूरी तरह से आव-भगत करने के लिए समय न हो तो कहीं भाग न जाए इसलिए एक सिरा पकड़कर खूंटे से बांध देता हूं। कागज पर दो-एक पंक्तियां अंकित हो जाती हैं। फुरसत मिलनेपर खूंटे पर जाकर कविता खोजता हूं। मुझे कविता की जगह मिलते हैं उसके पग-चिह्न। मैं कभी निराश हताश हो जाता हूं तो कभी पग चिह्नों से पूरी कविता तैयार करने का यत्न करता हूं। तैयार होने पर देखता हूं क्या जो आई थी वह ऐसी ही थी? आजतक कभी पूरा समाधान नहीं हुआ। हर बार लगता है कुछ छूट गया है। फिर याद करता हूं। बार-बार तराशता हूं। पर नहीं होता पूरा समाधान। नहीं मिलता सम्पूर्ण संतोष। कुछ छूट जाता है। यह जो छूट जाता है वही अगली कविता को जन्म देता है। मुझे ताज्जुब होता है और गर्व भी कि संवेदनाओं के प्रदेश दिन-ब-दिन अकाल-ग्रस्त हुए जा रहे हैं। भावनाएं लालच की महामारी की शिकार हो रही हैं। उसके बावजूद कविताएं तितलियों की तरह चली आती हैं। आकर कभी मेरे इर्दगिर्द मंडराती हैं कभी छूकर चली जाती हैं तो कभी मेरे कंधों पर उतर आती हैं। मैं कभी उनका फोटो ले संजोकर रखना चाहता हूं कभी छूने को मन करता है तो कभी पकड़ना चाहता हूं। ‘आदमी अब ख़ालिस आदमी नहीं होता’ की कविताएं मेरी इसी कोशिश का परिणाम है। इनमें अगर पाठकों को उनके अहसासों के प्रतिबिम्ब दिखलाई दिए तो मानूंगा कि संवेदनाओं के मेरे शहर भरपूर आबाद हैं।--भगवान वैद्य ‘प्रखर''
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