Aalochana Ke Sammukh
shared
This Book is Out of Stock!


LOOKING TO PLACE A BULK ORDER?CLICK HERE

Piracy-free
Piracy-free
Assured Quality
Assured Quality
Secure Transactions
Secure Transactions
Fast Delivery
Fast Delivery
Sustainably Printed
Sustainably Printed
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
566
749
24% OFF
Hardback
Out Of Stock
All inclusive*

About The Book

"आलोचना के सम्मुख" : समय के साथ समाज भी बदलता है। समय और समाज के इस बदलाव के साथ हमारी प्राथमिकता और प्रतिबद्धता भी बदलती ही है। ऐसे में साहित्य को भी बार-बार आलोचना के सम्मुख होना होता है। आलोचना के सम्मुख होकर साहित्य ही स्वयं को पुनर्व्याख्यायित नहीं करता, आलोचना भी इसी प्रक्रिया में पुनर्परिभाषित होती रहती है। आलोचना की पुनर्परिभाषा का अर्थ आलोचना के प्रचलित स्वरूप से असंतोष और आलोचना को अपने समय की विवेक चेतना से जोड़ने की अभिलाषा है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में साहित्य के विकास की प्रक्रिया की संगति की पहचान भी इस असंतोष और अभिलाषा में निहित है। नितान्त समसामयिकता के अतिरिक्त आग्रह के कारण श्रेष्ठ साहित्य की पहचान का संकट उत्पन्न होता है। लोकप्रियता का अतिरेक साहित्यिकता और कलात्मकता के बोध को थोड़ा सीमित करता है। साहित्य का आलोचना के सम्मुख आना लोकप्रियता और कलात्मकता के अंतर को फिर से मुखर करना है। आलोचना का स्तर और विस्तार प्रधानतः 'साहित्य-समीक्षा' से निर्धारित होता है। 'हिन्दी आलोचना' का विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य की आलोचना की तुलना में एक अनुशासन के रूप में प्रतिष्ठित होने का एक बड़ा कारण 'साहित्य-समीक्षा से उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। 'हिन्दी आलोचना' को निरंतर 'साहित्य समीक्षा' से आधार और बल मिलता रहा है। आलोचना की संस्कृति के क्षीण होने का अर्थ आलोचना के अधिकार का कम होना है और आलोचना के विवेक का भी। आलोचना का अधिकार और आलोचना को विवेक संग होकर ही सार्थकता पाता है। हिन्दी में आलोचना की संस्कृति, आलोचना का स्तर और आलोचना के विस्तार की चिंता इस तरह साहित्य- समीक्षा की हमारी शास्त्रीय परम्परा की खोज से जुड़ती है।
downArrow

Details