अपने आप से अपने परिवेश और व्यवस्था से नाराज़ कवि के रूप में दुष्यन्त कुमार की कविताएँ हिन्दी का एक आवश्यक हिस्सा बन चुकी हैं। आठवें दशक के मध्य और उत्तराद्र्ध में अपनी धारदार रचनाओं के लिए बहुचर्चित दुष्यन्त जिस आग में होम हुए उसे उनकी रचनाओं में लम्बे समय तक महसूस किया जाता रहेगा। आवाज़ों के घेरे दुष्यन्त कुमार का एक ज़रूरी कविता-संग्रह है। इसमें धुआँ-धुआँ होती उस शख्सियत को साफ तौर पर पहचाना जा सकता है जिसे दुष्यन्त कहा जाता है। समग्रत: ये विरोध की कविताएँ हैं लेकिन रचनात्मक स्तर पर कवि का यह विरोध व्यवस्था से अधिक अपने आप से है जहाँ व्यक्ति न होकर वह एक वर्ग है—मुट्ठियों को बाँधता और खोलता। ना जो उसकी ज़रूरत है और खोलना मजबूरी। एक प्रकार की निरर्थकता और ठहराव का जो बोध इन कविताओं में है वह सार्थक और गतिशील होने की गहरी छटपटाहट से भरा हुआ है। स्पष्टत: कवि का यही द्वन्द्व और छटपटाहट इन कविताओं का रचनाधाय है जिसे सहज और सार्थक अभिव्यक्ति मिली है। दुष्यन्त लय के कवि हैं इसलिए मुक्तछन्द होकर भी ये कविताएँ छन्दमुक्त नहीं हैं। साथ ही यहाँ उनके कुछ गीत भी हैं और बाद में सामने आई बेहतरीन गज़लों की आहटें भी। संक्षेप में यह संग्रह दुष्यन्त की असमय समाप्त हो गई काव्य-यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।.
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