इस युवा आज़ाद देश में आखिर कितनी आज़ाद हैं हम महिलाएं? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आजादी के मायने मुझे बदले हुए नजर आते हैं। आज आजादी की सर्वाधिक चर्चा स्त्री स्वतंत्रता को लेकर होती नजर आती है। आए दिन अखबारों के पन्ने काली स्याही से भरे होते हैं स्याही समाचारों से। हैरान करने वाली बात ये है की भारत जैसे धर्मभीरु देश में जहाँ पर नारी को देवी का स्थान दिया जाता है इतना घिनौना अपराध इतनी हैवानियत क्यों?हमारा सविंधान हर एक भारतीय को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष बराबर के अधिकार देता है। परंतु यह केवल संविधान की पुस्तक तक ही सीमित रह गया है। आम मानस पटल तक यह विचार पहुँच ही नहीं पाया। नारी की देह उसकी अपनी सम्पति है। उसे नियमों में मर्यादा में बांधने का निर्णय केवल उसका अपना है। किसी भी अन्य को उसका चरित्र हनन करने या उसकी अस्मिता से खिलवाड़ करने का कोई हक़ नहीं। क्या समाज को अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाना चाहिए? उसे समाज में अपनी मर्जी से जीने का अधिकार नहीं है? क्या वह देर रात घर से बाहर नहीं निकल सकती... क्या उसे खुद के निर्णय लेने की आजादी भी नहीं है| ये क्या बात हुई कि पिता के घर में उसके निर्णय मायके वाले लेगें और ससुराल में उसके ससुराल वाले?आज व्याभिचार की ये जो लहर समाज में फेंल रही है इसका उत्तरदायी कौन है? “हम सभी” हम सब इसके जिम्मेदार है| हम महिलाओं के छोटे कपडे उघडे शरीर और सिनेमा को दोषी ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ सकते है पर क्या हम कभी अपने संस्कारो को अपनी परवरिश को ज़िम्मेदार ठहराते हैं? महज नारी मुक्ति या नारी सशक्तीकरण का नारा बुलंद करने से स्थिति नहीं सुधर सकती। शुरुआत अपने घर से करनी होगी।
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