Abhyudaya Ram Katha-I (अभ्युदय राम कथा - I)+Abhyudaya Ram Katha-II (अभ्युदय राम कथा - II)


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This combo product is bundled in India but the publishing origin of this title may vary.Publication date of this bundle is the creation date of this bundle; the actual publication date of child items may vary.ऋषि विश्वामित्र के समान मुझे और मेरे समय को भी श्रीराम की आवश्यकता है जो इंद्र और रूढ़िबद्ध सामाजिक मान्यताओं की सताई हुई समाज से निष्कासित वन में शिलावत् पड़ी अहल्या के उद्धारक हो सकते ; जो ताड़का और सुबाहु से संसार को छुटकारा दिला सकते ; मारीच को योजनों दूर फेंक सकते ; जो शरभंग के आश्रम में निसिचरहीन करौं महि का प्रण कर सकते ; संसार को रावण जैसी अत्याचारी शक्ति से मुक्त करा सकते।<br>किंतु वे मानव शरीर लेकर जन्मे थे। उनमें वे सहज मानवीय दुर्बलताएं क्यों नहीं थीं जो मनुष्य मात्र की पहचान हैं? आदर्श पुरुष त्याग करते हैं ; किंतु यह तो त्याग से भी कुछ अधिक ही था। जहां आधिपत्य की कामना ही नहीं थी। यह तो आदर्श से भी बहुत ऊपर – मानवता की सीमाओं से बहुत परे – कुछ और ही था। श्रीराम में कामना नहीं मोह नहीं लोभ नहीं क्रोध नहीं। ऐसा मनुष्य कैसे संभव है? मेरे विपक्षी रुष्ट हैं कि राम उनके जैसे क्यों न हुए? कंचन और कामिनी का मोह उन्हें क्यों नहीं सताता राज्य. धन संपत्ति और सत्ता से उपलब्ध होने वाले विलास और व्यसन उन्हें लालायित क्यों नहीं करते? ईर्ष्या शत्रुता और प्रतिशोध के भाव उनके मन में क्यों नहीं जागते? गोस्वामी जी ने कहा है निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार। ... इंद्रिय भोग की कोई कामना उस शरीर की संरचना में सम्मिलित नहीं थी इसलिए उनके मन ने प्रकृति के वे स्वाभाविक गुण अंगीकार नहीं किए जो मनुष्य को साधारण मनुष्य बनाते हैं। उन्होंने तो वह तन धारण किया था जो साधारण नहीं था - वह माया के गुणों और इंद्रियों के नियंत्रण से परे था।<br>राम अपना तन अपनी इच्छा से निर्मित करते हैं तभी तो माया को बांधकर चेरी बनाकर लाते हैं। अष्टावक्र ने बताया मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज। हे तात ! यदि मुक्ति की इच्छा है तो विषयों को विष के समान त्याग दे। कामना त्याग और मुक्त हो जा आत्मा वही शरीर तो धारण करती है जिसकी वह कामना करती है। शरीर तो हमारा भी निज इच्छा निर्मित ही है। बस आत्मा ने मन के साथ तादात्म्य कर लिया है। मन ने ढेर कामनाएं ओढ़ ली हैं इंद्रिय - सुख के सपने संजो लिए हैं। आत्मा ने उन्हीं कामनाओं की पूर्ति के लिए उपयुक्त शरीर धारण किए जो सुख और दुख भोग रहा है।<br>उन्हीं राम की कथा है – अभ्युदय जिसने पिछले तीस वर्षों से हिंदी के पाठक के मन पर एकाधिकार जमा रखा है।ऋषि विश्वामित्र के समान मुझे और मेरे समय को भी श्रीराम की आवश्यकता है जो इंद्र और रूढिबद्ध सामाजिक मान्यताओं की सताई हुई समाज से निष्कासित वन में शिलावत् पड़ी अहल्या के उद्धारक हो सकते; जो ताड़का और सुबाहु से संसार को छुटकारा दिला सकते; मारीच को योजनों दूर फेंक सकते; जो शरभंग के आश्रम में निसिचरहीन करौं महि का प्रण कर सकते; संसार को रावण जैसी अत्याचारी शक्ति से मुक्त करा सकते।<br>किंतु वे मानव शरीर लेकर जन्मे थे। उनमें वे सहज मानवीय दुर्बलताएं क्यों नहीं थीं जो मनुष्य मात्र की पहचान हैं? आदर्श पुरुष त्याग करते हैं; किंतु यह तो त्याग से भी कुछ अधिक ही था जहां आधिपत्य की कामना ही नहीं थी। यह तो आदर्श से भी बहुत ऊपर – मानवता की सीमाओं से बहुत परे – कुछ और ही था। श्रीराम में कामना नहीं मोह नहीं लोभ नहीं क्रोध नहीं। ऐसा मनुष्य कैसे संभव है? मेरे विपक्षी रुष्ट हैं कि राम उनके जैसे क्यों न हुए? कंचन और कामिनी का मोह उन्हें क्यों नहीं सताता? राज्य धन संपत्ति और सत्ता से उपलब्ध होने वाले विलास और व्यसन उन्हें लालायित क्यों नहीं करते? ईर्ष्या शत्रुता और प्रतिशोध के भाव उनके मन में क्यों नहीं जागते? गोस्वामी जी ने कहा है निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार। ...इंद्रिय भोग की कोई कामना उस शरीर की संरचना में सम्मिलित नहीं थी इसलिए उनके मन ने प्रकृति के वे स्वाभाविक गुण अंगीकार नहीं किए जो मनुष्य को साधारण मनुष्य बनाते हैं। उन्होंने तो वह तन धारण किया था जो साधारण नहीं था - वह माया के गुणों और इंद्रियों के नियंत्रण से परे था।<br>राम अपना तन अपनी इच्छा से निर्मित करते हैं तभी तो माया को बांधकर चेरी बनाकर लाते हैं। अष्टावक्र ने बताया “मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज। हे तात! यदि मुक्ति की इच्छा है तो विषयों को विष के समान त्याग दे। कामना त्याग और मुक्त हो जा आत्मा वही शरीर तो धारण करती है जिसकी वह कामना करती है। शरीर तो हमारा भी निज इच्छा निर्मित ही है। बस आत्मा ने मन के साथ तादात्म्य कर लिया है। मन ने ढेर कामनाएं ओढ़ ली हैं इंद्रिय - सुख के सपने संजो लिए हैं। आत्मा ने उन्हीं कामनाओं की पूर्ति के लिए उपयुक्त शरीर धारण किए जो सुख और दुख भोग रहा है।<br>उन्हीं राम की कथा है – अभ्युदय जिसने पिछले तीस वर्षों से हिंदी के पाठक के मन पर एकाधिकार जमा रखा है।
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