यह पुस्तक एक सामाजिक उपन्यास पर आधारित है। वैसे तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि सूर्य के सामने दीपक जलाना कोई बुद्धिमŸाा का कार्य नहीं है। फिर भी जब मन न माने तो मन का कहना मानना ही पड़ता है। इसलिए मैं अपने नादान मन कर कहना मानते हुए केवल इतना ही कहना चाहता हूॅं कि मेरी इस ‘अधूरी साध’ के प्रमुख चार पात्र हैं - दो नवयुवतियाॅं और दो नवयुवक। ये चारों पात्र चरित्रवान हैं। ये चारों ही व्यवहार कुशल हैं। ये चारों ही एक दूसरे से प्रेम करते हैं तथा सब का आदर-सत्कार भी करते हैं। परन्तु बुद्धि तो सब की अपनी-अपनी होती है। सब सोचते भी हैं तो अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही। मेरे यह चार पात्र भी बुद्धिमान हैं जो सोचने समझने की कला से अच्छी तरह परिचित हैं। परन्तु नारी स्वभाव को समझना आसान नहीं होता। नारी तो कभी-कभी स्वयं अपने-आप को नहीं समझ पाती। लेकिन नवयुवती के स्वभाव का एक विशेष गुण तो है ही कि वह अपने स्वाभिमान पर लगने वाली चोट को सहन नहीं कर सकती। वह अपने सम्बन्ध में ऐसा कुछ सुन कर क्रोध से तिलमिलाने लगाती है जो उसे अच्छा न लगता हो। ऐसे अवसर पर उसका मन कहता है कि किसी ने उसको ऐसा कह कैसे दिया ऐसा क्यों कह दिया। वो किस हैसीयत से मुझे ऐसा कह रहा हैै। बस इसी असहनशीलता और तिलमिलाहट के कारण कभी-कभी वह कुछ ऐसा कर बैठती है जिसका परिणाम उसके लिए अच्छा नहीं होता। परन्तु ऐसा कुछ करने से पहले वह ऐसा समझती है कि मैं जो सोच-समझ रही हॅंू बस वही ठीक है। अन्त में मैं आदरणीय पाठकों से सिर्फ इतना ही कहना चाहता हॅंू कि नवयुवक और नवयुवती को यौवन में नादानी से बचना चाहिए। यह बचाव ही उनके जीवन में ऐसा सुहावना रंग से भर देगा जो रंग सदा चमकता ही रहेगा।
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