प्रस्तुत उपन्यास “आखिर कानून को किसने बेचा? एक ऐसी पुस्तक है जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार और नियम-कानून की वीभत्स स्थिति को दर्शाती है। आज नियम-कानून एक ऐसा ढोल बन गया है जिसे जो चाहे जब चाहे जितना चाहे जैसे चाहे बजा जाता है। थाना कोर्ट- कचहरी नामक मंडियों में सरेआम नियम-कानून बेचा जाने लगा है। तमाम सरकारी पदों पर बैठे नियम-कानून के विक्रेता बड़ी शान से अच्छे मूल्य पर नियम-कानून बेचने में गर्व महसूस कर रहे हैं। आज कानून वही है जो एक अदना-सा सरकारी कर्मचारी से लेकर उच्च पदों पर आसीन पदाधिकारी चाहता है वह नहीं जो हमारे कानून की किताबों में अंकित हैं ।और ये कानून के मंडी के दलाल वकील कानून के रक्षक एक सिपाही से लेकर थानेदार पुलिस अधीक्षक कानून मंत्री तक और ये कानून के तथाकथित संपोषक उच्च सरकारी पदों पर बैठे पदाधिकारी से लेकर चपरासी तक कानून का मंडी सजाकर बैठे हैं जहांँ हमारे ही बीच के चतुर चालक अवसरवादी धूर्त धनपति से लेकर आम जनता तक नियम-कानून का खरीद-फरोख्त में संलग्न है। आज देश को किसी दुर्दांत अपराधी नक्सली उग्रवादी आतंकवादी से कहीं ज्यादा खतरा इस भ्रष्टाचार के छत्रछाया में नियम-कानून की मंडी सजाकर बैठे कानून के दलालों विक्रेताओं से ज्यादा है। यह देश के लिए चिंतनीय विषय है।
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