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About The Book
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About the Book: जाति की समस्या भारत देश के लिए भयंकर होती जा रही है। यह जाति ही है जिसके चलते भारत-भूमि आक्रांताओं के समक्ष प्रणत हो गयी थी। एक से एक बढ़कर रण-बाँकुरे होते हुए भी यह भूमि विदेशियों के पद तले हज़ारों साल तक कुचली जाती रही है। विदेशी आक्रांताओं ने भी देशी वीरों को ही आपस में लड़ा-कटवाकर सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाया था। हार के कारण भी स्पष्ट थे: हज़ारों तरह की अलग-अलग पहचान रखने वाले इसके वासियों में भला एका कैसे हो सकता था! इतिहास पढ़ने वालों को ये तथ्य बड़े सहज ही अवगत हो जाते हैं। कड़वी सचाई यह है कि राजनीतिक चतुराई के चलते सत्ताधीशों ने अपने आप को ‘ऊँचा’ और सत्ता से वंचित जनों को ‘नीचा’ मानना शुरू कर _दिया। भला कौन ऐसा मूर्ख होगा जो ऊँचों के हाथों नीचा देखकर भी ऊँचों के लिए युद्ध में जी-जान से लड़ता! परिणाम इतिहास में लिखा है! ‘आज़ादी’ के अधकचरे प्रयोग के चलते स्थिति और भी भयावह हो गयी है; उस समय आशा की गयी थी कि अब तो एक हजार वर्ष का संत्रास झेलकर देशवासियों को कुछ अक़्ल आ गयी होगी किंतु कहाँ! अब तो स्थिति और भी विस्फोटक होती जा रही है। ‘नीचे लोग’ ऊँचे लोगों को गरियाते रहते हैं: उसके लिए वे ‘मनु-स्मृति’ नाम की किसी पौराणिक पुस्तक को गरियाते रहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि आधुनिक भारत के 99.99 प्रतिशत लोगों ने उस पुस्तक का पढ़ना तो दूर नाम तक नहीं सुना है। उधर ‘ऊँचे लोग’ आज़ादी को अपने विनाश का कारक मानते हैं: उनकी सारी प्रभुता नए विधान - संविधान - के चलते मटिया-मेट हो गयी है! वे उसे गरियाते रहते हैं। सुनने पर दोनों की ही बातें ठीक और तर्क-संगत लगती हैं। समाज के बीच इस पर जो बहस चल रही है उसी का एक छोटा सा नमूना है यह एकांकी! यह नाटिका!