भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने को अमृत-महोत्सव की संज्ञा देना एक उत्कृष्ट प्रतीकात्मक चिन्तन है | जिस प्रकार समुद्र-मंथन से अमृत की प्राप्ति हुई थी उसी प्रकार इतिहास-मंथन से अमृत-सम तथ्य उद्घाटित हो रहे हैं जो हमें हीन-भावना तथा गुलामी की मानसिकता के गहन अंधकार से बाहर निकालकर स्वाभिमान एवं आत्म-गौरव के आलोकित पथ पर आरूढ़ कर रहे हैं। निहित स्वार्थी इतिहासकारों ने हमारे उन्नत अतीत की सर्वांगीण उपलब्धियों -- मूलतः विकसित सभ्यता व संस्कृति आध्यात्मिक चिन्तन वैज्ञानिक गणितीय भौगोलिक व स्थापत्य कला के क्षेत्र में अर्जित ज्ञान -- की उपेक्षा करते हुए सिद्धांतहीन आक्रांताओं का जो महिमा-मण्डन किया है वह ऐतिहासिक भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा तथा अक्षम्य अपराध ही तो है। किन्तु अब इस परिवर्तित वातावरण में हमारे राष्ट्र-नायकों का सम्मान व उनकी मूर्तियों की स्थापना तथा देव-स्थलों का सौंदर्यीकरण व विस्तार जैसे कार्य भारत की गरिमा को पुनर्स्थापित तथा समाज के स्वाभिमान को पुनर्जागृत करते प्रतीत हो रहे हैं | स्वाधीनता की 75 वीं वर्षगाँठ पर राष्ट्र-नायक सुभाषचंद्र बोस जी को समर्पित अमृत महोत्सव की ग़ज़लें में जीवन से जुड़े सहज शब्द मिटटी पानी आग गगन व हवा [यानी पंचतत्व] जैसे 75 शब्दों का रदीफ़ के रूप में प्रयोग एक अभिनव प्रयास है। यह संकलन मात्र एक ग़ज़ल संग्रह न होकर हमारी विरासत देश के इतिहास स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु हमारे राष्ट्रप्रेमियों के योगदान और कुछ अनछुए तथ्यों की जानकारी भी प्रदान करता है जो रमेश 'कँवल' का गागर में सागर सदृश एक संग्रहणीय दस्तावेज़ है। अमेज़न के लिए पुस्तक परिचय
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