Ananubhoot Kaal


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About The Book

About the Book: अननुभूत काल अब यह तीसरी काव्य-पुस्तक है! एकदम नवीन काल से सम्बंधित! अभी-अभी हो गुज़रे बड़े मानवीय हादसे को रेखांकित करती हुई: कोरोना की महा-आपदा! विश्व-आपदा! जो न कभी हुई थी और आशा ही कर सकते हैं न कभी होगी! एकदम नए रूप में दुनिया को सोचने को मजबूर होना पड़ा: ऐसा भी हो सकता है? बेतहाशा भागम-भाग में लगी दुनिया अचानक रुक-सी गयी; नहीं रुक ही गयी – शब्दशः। वायुयान रुक गये रेलयान रुक गये बसें रुक गयीं सारे वाहन रुक गये। मंदिर मश्जिद गुरुद्वारे और चर्च भी बंद हो गये: परमात्मा के घर थे वे! हैं! मक्का मदीना बंद हो गये। वेटिकन बंद हो गया। वह चिरंतन अटूट आस्था जो रुकने का नाम नहीं लेती थी और आए दिन छोटी-छोटी बातों पर सिर-फुटव्वल को बेताब रहती थी अचानक अपने को सकपकाता हुआ पाने लगी। क्या वह बस आस्था ही भर थी दुनियावी प्राणियों को भरमाने के लिए उसमें कोई पारमार्थिक सार न था? तार्किक मन यह सोचने को विवश हो गया। इस कोरोना-काल ने बहुत सारे पाखण्ड मण्डन किए हैं! About the Author: विदेह’ अरविन्द कुमार 6 अप्रैल 1957 को जन्मे एक छोटे से बसेरे से आए हुए अत्यंत अभावग्रस्त माता-पिता की संतान जिन्हें खाने-कमाने का तो शऊर ख़ैर नहीं था किंतु जो उच्च आदर्शों के साथ जीते थे और व्यवसाय के नाम पर अध्यापन या ट्यूशन देकर आजीविका कमाने की कोशिश करते थे ‘विदेह’ अरविन्द कुमार भौतिकी में स्नातकोत्तर हैं साथ ही एक वरिष्ठ बैंकर भी रह चुके हैं। उनके शौक़ों में पढ़ाई - चाहे वह हिंदी साहित्य की हो चाहे इंग्लिश लिटरेचर की या कुछ-कुछ संस्कृत साहित्य की भी - मुख्य है; जिसमें वह विश्व-साहित्य को प्राथमिकता देते हैं।
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