क्या यह वाक़ई कठिन है कि कवि और कविता दोनों नैतिक हों ? अगर यह कठिन है तो यह कठिनाई पाठकों श्रोताओं और आम जन के जीवन संघर्ष की मजबूरी और प्रतिरोधहीनता भरी सच्चाई से भी जुड़ती है और कविता की असफलता से भी. मेरा मानना है कि नैतिक साहस की कमी कवि को मात्र कलमघसीट बना कर छोड़ देती है . हम सत्ता से अपने ख़तरे को बड़ा और आमजन के ख़तरे को छोटा करके नहीं देख सकते. नैतिकता ईमानदारी और काव्य-विवेक के साथ ही प्रविधि का मामला भी कविता के लिए महत्वपूर्ण है. भाषा शिल्प और सम्प्रेषणीयत का प्रश्न हमेशा से सर उठाता रहा है. छंद का सार्वकालिक आग्रह कविता को मंचीय बना देता है और पूर्णकालिक दुराग्रह उसे जनसामान्य से निर्लिप्त कर देता है . छंद कविता की सपाटबयानी ढंकने का उपकरण कतई नहीं है . कविता की सपाटबयानी कविता में गहरे धंस कर ही दूर की जिंदगी सकती है. दरअसल कविता में आई बात ही अंतत: आपके ज़ेहन में टिकती है कहन नहीं . कविता को जानबूझकर सरल बनाना और जानबूझकर कठिन बनाना दोनों ही कविता और पाठक के हक़ में नहीं . कविता के लिए इतना ध्यान रखना पर्याप्त है कि कविता न तो निबंध है न चुटकुला न गाना. कविता की पहली और अंतिम शर्त उसका कविता होना है चाहे वह छंद में हो या छंद मुक्त .---देवेन्द्र आर्य
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