ANSH

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ऐसे में कविता के साहित्य के स्वर का विभाजन क्या वाजिब है? नहीं न! किसी भी स्वर का विभाजन वाजिब नहीं है! विभाजन की रीत ही वाजिब नहीं! आखिर क्यों टूटें हम? किस किस से टूटें? और निरंतर टूटते चले जाएं! यह तो समय का प्रसाद नहीं हो सकता। समय की आंखों में तो भविष्य के सपनों का बने रहना जरूरी है। जरूरी है प्रेम में अभीष्ट की प्राप्ति का अनवरत गूंजते रहना। अन्यथा समय को ग्रहण लगना स्वाभाविक है। और शायद लग भी चुका है। तभी तो मतिभ्रष्ट हुई राजनीति सेवा के अपने मार्ग से विचलित हो तबाही की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है! शांति की रागनियां सुनाई नहीं दे रहीं जो आश्वस्त कर सकें! यह आभास दिला सकें कि जीवन खुशियों का महापर्व है!
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