श्वेताश्वतरोपनिषद् का द्वितीय अध्याय ‘योग’ का सम्यक ज्ञान प्रदान कर ब्रह्म के प्रति आशान्वित बना देता है । उठना-बैठना ध्यान आहार-विहार आदि समस्त योग-चेष्टाओं का कथन है। कैसी भूमि पर ध्यान योग करना चाहिए उसके सम्बन्ध में भी स्पष्ट कथन है (2/8-10)। साथ ही प्राणायाम का क्रम एवं उसकी महत्ता भी बताई गयी है । तृतीय अध्याय कई दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है । इसमें “ एको हि रूद्रो न द्वितीयः ” (3/2) कहकर शिव को श्रेष्ठ बताया गया है । और कई मंत्रों में कैलाशवासी शिव की स्तुति वर्णित है । ऋग्वेद के पुरूष-सूक्त का एक मंत्र - “सहस्त्रशीर्षा पुरुषः” (3/14) भी वर्णित है । चौथे अध्याय में तत्व बोध से मुक्ति तथा सद्बुद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है । इसी अध्याय के एक मंत्र में वो विशिष्ट श्लोक है जिसमें ईश्वर एवं जीव की दो पक्षियों के रूप में उपमा दी गयी है । ईश्वर सम्पूर्ण जगत् का स्वामी और पालनकर्त्ता हैं । जीवात्मा के साथ वह सर्वाभाव में रहता है – “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य नश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ ” (4/6)
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