प्रेम अर्थात परमात्मा है इश्क नहीं आसां इतना तो समझ लीजे। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।। क्या सच ही ओशो प्रेम इतना दुस्तर है? प्रेम तो दुस्तर नहीं। प्रेम तो सर्वाधिक स्वाभाविक स्वस्फूर्त घटना है। लेकिन जैसे कोई झरने को चट्टान अटका कर बहने से रोक दे ऐसा प्रेम भी अहंकार की चट्टान में दब गया है। चट्टान बड़ी है। झरना कोमल है-फूलल की भांति। गुलाब के फूल को चट्टान में दबा दो तो उस फूल का विकास कठिन तो हो ही जाए। लेकिन फूल का इसमें कसूर नहीं। दबाते हो चट्टान से और फिर कहते हो कि फूल का बढ़ना कितना दुस्तर है। और फिर कहते हो कि झरने का बहना कितना दुर्गम है। हटाओ चट्टान! फिर झरने को बहाना भी नहीं पड़ता अपने से बहता है। इसलिए कहा--स्वस्फूर्त सहज स्वाभाविक। प्रेम तो हमारी आत्मा है। प्रेम तो हमारा स्वरूप है। प्रेम ही तो है जिससे हम बने हैं। प्रेम ही तो है जिससे सारा जगत बना है। उस प्रेम को ही तो हमने नाम दिया है परमात्मा का। कोई और परमात्मा नहीं है-बसस प्रेम को ही दिया गया एक नाम। प्रेम ही परमात्मा है। ओशो.
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