Ashtavakra Mahageeta Bhag 1-9 (अष्टावक्र महागीता भाग : 1-9) (Set of 9 Books)


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About The Book

This combo product is bundled in India but the publishing origin of this title may vary.Publication date of this bundle is the creation date of this bundle; the actual publication date of child items may vary.अष्टावक्र की गीता को मैंने यूं ही नहीं चुना है। और जल्दी नहीं चुना है। बहुत देर करके चुना है- सोच-विचार के। दिन थे जब मैं कृष्ण की गीता पर बोला क्योंकि भीड़-भाड़ मेरे पास थी। भीड़-भाड़ के लिए अष्टावक्र गीता का कोई अर्थ न था।<br>बड़ी चेष्टा करके भीड़-भाड़ से छुटकारा पाया है। अब तो थोड़े-से विवेकानंद यहां हैं। अब तो उनसे बात करनी है जिनकी बड़ी संभावना है। उन थोड़े-से लोगों के साथ मेहनत करनी है जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं कंकड़-पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो इसलिए चुनी है।“यह जनक और अष्टावक्र के बीच जो चर्चा है यह अद्भुत संवाद है। अष्टावक्र ने कुछ बहुमूल्य बातें कहीं। जनक उन्हीं बातों की प्रतिध्वनि करते हैं। जनक कहते हैं कि ठीक कहा बिलकुल ठीक कहा; ऐसा ही में अनुभव कर रहा हूं। मैं अपने अनुभव की अभिव्यक्ति देता हूं। इसमें कुछ प्रश्नोत्तर नहीं है। एक ही बात को गुरु और शिष्य दोनों कह रहे हैं। एक ही बात को अपने-अपने ढंग से दोनों ने गुनगुनाया है। दोनों के बीच एक गहरा संवाद है। यह संवाद है यह विवाद नहीं है। कृष्ण और अर्जुन के बीच विवाद है। अर्जुन को संदेह है। वह नई-नई शंकाएं उठाता है। चाहे प्रगट रूप से कहता भी न हो कि तुम गलत कह रहे हो लेकिन अप्रगट रूप से कहे चला जाता है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा। वह एक ही बात है। वह कहने का सज्जनोचित ढंग है कि अभी मेरा संशय नहीं मिटा अभी मेरी शंका जिंदा है; तुमने जो कहा वह जंचा नहीं।”'जीवन तो जैसा है वैसा ही रहेगा। वैसा ही रहना चाहिए। हां इतना फर्क पड़ेगा... और वही वस्तुतः आमूल क्रांति है। आमूल का मतलब होता है : 'मूल से'। ...आमूल क्रांति का अर्थ होता है : जो अब तक सोये-सोये करते थे अब जाग कर करते हैं। जागने के कारण जो गिर जाएगा गिर जाएगा; जो बचेगा बचेगा-लेकिन न अपनी तरफ से कुछ बदलना है न कुछ गिराना न कुछ लाना। साक्षी है मूल।<br>'मैं वस्तुतः तुम्हें मुक्त कर रहा हूं। मैं तुम्हें क्रांति से भी मुक्त कर रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं : ये सब कुछ करने की बातें ही नहीं है। तुम जैसे हो - भले हो चंगे हो शुभ हो सुंदर हो। तुम इसे स्वीकार कर लो। तुम जीवन की सहजता को व्यर्थ की बातों से विकृत मत करो। विक्षिप्त होने के उपाय मत करो पागत मत बनो!“यह गीता जनक और अष्टावक्र के बीच जरा भी विवाद नहीं है। ... जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों और एक-दूसरे के दर्पण में एक-दूसरे दर्पण की छवि बन रही है। ...दर्पण दर्पण के सामने खड़ा है। ... जैसे दो जुड़वां एक ही अंडे में पैदा हुए बच्चे हैं। दोनों का स्रोत समझ का 'साक्षी' है। दोनों की समझ बिल्कुल एक है। भाषा चाहे थोड़ी अलग-अलग हो लेकिन दोनों का बोध बिलकुल एक है। दोनों अलग-अलग छंद में अलग-अलग राग में एक ही गीत को गुनगुना रहे हैं। इसलिए मैंने इसे 'महागीता' कहा है। इसमें विवाद जरा भी नहीं है। ... यहां कोई प्रयास नहीं है। अष्टावक्र को कुछ समझाना नहीं पड़ रहा है। अष्टावक्र कहते हैं और उधर जनक का सिर हिलने लगता है सहमति में। दोनों के बीच बड़ा गहरा अंतरंग संबंध है बड़ी गहरी मैत्री है। इधर गुरु बोला नहीं कि शिष्य समझ गया।“यह गीता जनक और अष्टावक्र के बीच जरा भी विवाद नहीं है। ... जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों और एक-दूसरे के दर्पण में एक-दूसरे दर्पण की छवि बन रही है। ...दर्पण दर्पण के सामने खड़ा है। ... जैसे दो जुड़वां एक ही अंडे में पैदा हुए बच्चे हैं। दोनों का स्रोत समझ का 'साक्षी' है। दोनों की समझ बिल्कुल एक है। भाषा चाहे थोड़ी अलग-अलग हो लेकिन दोनों का बोध बिलकुल एक है। दोनों अलग-अलग छंद में अलग-अलग राग में एक ही गीत को गुनगुना रहे हैं। इसलिए मैंने इसे 'महागीता' कहा है। इसमें विवाद जरा भी नहीं है। ... यहां कोई प्रयास नहीं है। अष्टावक्र को कुछ समझाना नहीं पड़ रहा है। अष्टावक्र कहते हैं और उधर जनक का सिर हिलने लगता है सहमति में। दोनों के बीच बड़ा गहरा अंतरंग संबंध है बड़ी गहरी मैत्री है। इधर गुरु बोला नहीं कि शिष्य समझ गया।जब तक सहारा है तब तक मन रहेगा। सहारा मन को ही चाहिए। आत्मा को किसी सहारे की जरूरत नहीं है। मन लंगड़ा है; इसको बैसाखियां चाहिए। तुम बैसाखी किस रंग की चुनते हो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। मन को कुछ उपद्रव चाहिए व्यस्तता चाहिए आक्युपेशन चाहिए। किसी बात में उलझा रहे। माला ही फेरता रहे तो भी चलेगा। रुपयों की गिनती करता रहे तो भी चलेगा। काम से घिरा रहे तो भी चलेगा। रामनाथ की चदरिया ओढ़ ले राम-राम बैठकर गुनगुनाता रहे तो भी चलेगा। लेकिन कुछ काम चाहिए। कुछ कृत्य चाहिए। कोई भी कृत्य दे दो हर कृत्य की नाव पर मन यात्रा करेगा और संसार में प्रवेश कर जाएगा।... तुम मुझे जब सुनो तो ऐसे सुनो जैसे कोई किसी गायक को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी कवि को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि जैसे कोई कभी पक्षियों के गीतों को सुनता है या पानी की मरमर को सुनता है या वर्षा में गरजते मेघों को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि तुम उसमें अपना हिसाब मत रखो। तुम आनंद के लिए सुनो। तुम रस में डूबो। तुम यहां दुकानदार की तरह मत आओ। तुम यहां बैठे-बैठे भीतर गणित मत बिठाओ कि क्या इसमें से चुन लें और क्या करें क्या न करें। तुम मुझे सिर्फ आनंद-भाव से सुनो। स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा! स्वान्तः सुखाय... सुख के लिए सुनो। उस सुख में सुनतेसुनते जो चीज तुम्हें गदगद कर जाए उसमें फिर थोड़ी और डुबकी लगाओ। मेरा गीत सुना उसमें जो कड़ी तुम्हें भा जाए फिर तुम उसे गुनगुनाओ; उसे तुम्हारा मंत्र बन जाने दो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जीवन में बहुत कुछ बिना बड़ा आयोजन किए घटने लगा।अष्टावक्र के ये सूत्र अंतर्यात्रा के बड़े गहरे पड़ाव-स्थल हैं। एक-एक सूत्र को खूब ध्यान से समझना।<br>ये बातें ऐसी नहीं कि तुम बस सुन लो कि बस ऐसे ही सुन लो। ये बातें ऐसी हैं कि सुनोगे तो ही सुना। ये बातें ऐसी हैं कि ध्यान में उतरेंगी अकेले कान में नहीं तो ही पहुंचेंगी तुम तक। तो बहुत मौन से बहुत ध्यान से...।<br>इन बातों में कुछ मनोरंजन नहीं है। ये बातें उन्हीं के लिए हैं जो जान गए कि मनोरंजन मूढ़ता है। ये बातें उनके लिए हैं जो प्रौढ़ हो गए हैं। जिनका बचपना गया; अब जो घर नहीं बनाते हैं; अब जो खेल-खिलौना नहीं सजाते; अब जो गड्डा-गुड्डियों का विवाह नहीं रचाते; अब जिन्हें एक बात की जाग आ गई है कि कुछ करना है-कुछ ऐसा आत्यन्तिक कि अपने से परिचित हो जाएं। अपने से परिचय हो तो चिंता मिटे। अपने से परिचय हो तो दूसरा किनारा मिले। अपने से परिचय हो तो सबसे परिचय होने का द्वार खुल जाए।<br>हरि ओम् तत् सत्भय से मुक्त हो कर अपूर्व जीवन के फूल खिलते हैं। भय से दबे रह कर सब जीवन की कलियां बिन खिली रह जाती हैं पंखुड़ियां खिलती ही नहीं। भय तो जड़ कर जाता है। तो मैं जानता हूं तुम्हारी तकलीफ। लेकिन तुम भय से बचने के लिए उत्सुक हो तो कभी न बच पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं : भय को जानो देखो- है; जीवन का हिस्सा है। आंख गड़ा कर भय को देखो साक्षात्कार करो। जैसे-जैसे तुम्हारी आंख खुलने लगेगी और भय को तुम ठीक से देखने लगोगे पहचानने लगोगे- कहां से भय पैदा होता है- उतना ही उतना भय विसर्जित होने लगेगा दूर हटने लगेगा। और एक ऐसी घड़ी आती है अभय की जब कोई भय नहीं रह जाता। मृत्यु तो रहेगी शरीर मरेगा मन बदलेगा सब होता रहेगा लेकिन तुम्हारे अंतस्तल में कुछ है शाश्वत-सनातन छिपा जिसकी कोई मृत्यु नहीं। उसका थोड़ा स्वाद लो। साक्षी में उसका स्वाद मिलेगा। उसके स्वाद पर ही भय विसर्जित होता है। और कोई उपाय नहीं है।
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