Ashtavakra Mahageeta Bhag I Mukti Ki Aakansha: Mukti Ki Aakansha (अष्टावक्र ... आकांश&#236
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अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 10 (01 से 10) OSHO Talks </br></br> समाधि का सूत्र: विश्राम</br> अष्टावक्र कोई दार्शनिक नहीं हैं, और अष्टावक्र कोई विचारक नहीं हैं। अष्टावक्र तो एक संदेशवाहक हैं--चैतन्य के, साक्षी के। शुद्ध साक्षी! सिर्फ देखो! दुख हो दुख को देखो, सुख हो सुख को देखो! दुख के साथ यह मत कहो कि मैं दुख हो गया; सुख के साथ यह मत कहो कि मैं सुख हो गया। दोनों को आने दो, जाने दो। रात आए तो रात देखो, दिन आए तो दिन देखो। रात में मत कहो कि मैं रात हो गया। दिन में मत कहो कि मैं दिन हो गया। रहो अलग-थलग, पार, अतीत, ऊपर, दूर! एक ही बात के साथ तादात्म्य रहे कि मैं द्रष्टा हूं, साक्षी हूं। ओशो</br></br> ‘साक्षी’सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो; उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल, अग्नि, मिट्टी, आकाश, वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो। साक्षिणां चिद्रूपं आत्मानं विद्दि... यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा ज्ञान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शांत और बंध-मुक्त हो जाएगा।’ इसलिए मैं कहता हूं, यह जड़-मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि ‘अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं, ‘करो अभ्यास--यम, नियम; साधो--प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो। जन्म-जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।’ महावीर कहते हैं, ‘पंच महाव्रत! और तब जन्म-जन्म लगेंगे, तब होगी निर्जरा; तब कटेगा जाल कर्मों का।’ सुनो अष्टावक्र को: यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि। अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।। ‘अधुनैव!’ अभी, यहीं, इसी क्षण! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!’ अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं; मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है--बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आई तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता--आया और गया; मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता--आई और गई; मैं तो हूं! बुढ़ापा आया, जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं मैं वही शाश्वत हूं। स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! पूना की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं पूना हूं! फिर पहुंचे मनमाड़ तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड़ हूं! तुम जानते हो कि पूना आया, गया; मनमाड़ आया, गया--तुम तो यात्री हो! तुम तो द्रष्टा हो--जिसने पूना देखा, पूना आया; जिसने मनमाड़ देखा, मनमाड़ आया! तुम तो देखने वाले हो! तो पहली बात: जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो! ‘देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम...।’ और करने योग्य कुछ भी नहीं है। जैसे लाओत्सु का सूत्र है--समर्पण, वैसे अष्टावक्र का सूत्र है--विश्राम, रेस्ट। करने को कुछ भी नहीं है। ओशो</br></br> Chapter 1 सत्य का शुद्धतम वक्तव्य</br> Chapter 2 समाधि का सूत्र: विश्राम</br> Chapter 3 जैसी मति वैसी गति</br> Chapter 4 कर्म, विचार, भाव--और साक्षी</br> Chapter 5 साधना नहीं--निष्ठा, श्रद्धा</br> Chapter 6 जागो और भोगो</br> Chapter 7 जागरण महामंत्र है</br> Chapter 8 नियंता नहीं--साक्षी बनो</br> Chapter 9 मेरा मुझको नमस्कार</br> Chapter 10 हरि ॐ तत्सत्‌</br>|अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 10 (01 से 10) OSHO Talks समाधि का सूत्र विश्रामअष्टावक्र कोई दार्शनिक नहीं हैं और अष्टावक्र कोई विचारक नहीं हैं। अष्टावक्र तो एक संदेशवाहक हैं--चैतन्य के साक्षी के। शुद्ध साक्षी! सिर्फ देखो! दुख हो दुख को देखो सुख हो सुख को देखो! दुख के साथ यह मत कहो कि मैं दुख हो गया सुख के साथ यह मत कहो कि मैं सुख हो गया। दोनों को आने दो जाने दो। रात आए तो रात देखो दिन आए तो दिन देखो। रात में मत कहो कि मैं रात हो गया। दिन में मत कहो कि मैं दिन हो गया। रहो अलग-थलग पार अतीत ऊपर दूर! एक ही बात के साथ तादात्म्य रहे कि मैं द्रष्टा हूं साक्षी हूं। ओशो‘साक्षी’सूत्र है। इससे महत्वपूर्ण सूत्र और कोई भी नहीं। देखने वाले बनो! जो हो रहा है उसे होने दो उसमें बाधा डालने की जरूरत नहीं। यह देह तो जल है मिट्टी है अग्नि है आकाश है। तुम इसके भीतर तो वह दीये हो जिसमें ये सब जल अग्नि मिट्टी आकाश वायु प्रकाशित हो रहे हैं। तुम द्रष्टा हो। इस बात को गहन करो। साक्षिणां चिद्रूपं आत्मानं विद्दि... यह इस जगत में सर्वाधिक बहुमूल्य सूत्र है। साक्षी बनो! इसी से होगा ज्ञान! इसी से होगा वैराग्य! इसी से होगी मुक्ति! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी शांत और बंध-मुक्त हो जाएगा।’ इसलिए मैं कहता हूं यह जड़-मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि ‘अभी ही।’ पतंजलि कहते हैं ‘करो अभ्यास--यम नियम साधो--प्राणायाम प्रत्याहार आसन शुद्ध करो। जन्म-जन्म लगेंगे तब सिद्धि है।’ महावीर कहते हैं ‘पंच महाव्रत! और तब जन्म-जन्म लगेंगे तब होगी निर्जरा तब कटेगा जाल कर्मों का।’ सुनो अष्टावक्र को यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि। अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।। ‘अधुनैव!’ अभी यहीं इसी क्षण! ‘यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!’ अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है--बचपन था कभी तो बचपन देखा फिर जवानी आई तो जवानी देखी फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं हो सकता--आया और गया मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकता--आई और गई मैं तो हूं! बुढ़ापा आया जा रहा है तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है जाता है वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया जिस पर जवानी आई जिस पर बुढ़ापा आया जिस पर हजार चीजें आईं और गईं मैं वही शाश्वत हूं। स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन जवानी बुढ़ापा जन्म यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! पूना की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं पूना हूं! फिर पहुंचे मनमाड़ तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड़ हूं! तुम जानते हो कि पूना आया गया मनमाड़ आया गया--तुम तो यात्री हो! तुम तो द्रष्टा हो--जिसने पूना देखा पूना आया जिसने मनमाड़ देखा मनमाड़ आया! तुम तो देखने वाले हो! तो पहली बात जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो! ‘देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम...।’ और करने योग्य कुछ भी नहीं है। जैसे लाओत्सु का सूत्र है--समर्पण वैसे अष्टावक्र का सूत्र है--विश्राम रेस्ट। करने को कुछ भी नहीं है। ओशोChapter 1 सत्य का शुद्धतम वक्तव्यChapter 2 समाधि का सूत्र विश्रामChapter 3 जैसी मति वैसी गतिChapter 4 कर्म विचार भाव--और साक्षीChapter 5 साधना नहीं--निष्ठा श्रद्धाChapter 6 जागो और भोगोChapter 7 जागरण महामंत्र हैChapter 8 नियंता नहीं--साक्षी बनोChapter 9 मेरा मुझको नमस्कारChapter 10 हरि ॐ तत्सत्‌
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