“यह गीता जनक और अष्टावक्र के बीच जरा भी विवाद नहीं है। ... जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों और एक-दूसरे के दर्पण में एक-दूसरे दर्पण की छवि बन रही है। ...दर्पण दर्पण के सामने खड़ा है। ... जैसे दो जुड़वां एक ही अंडे में पैदा हुए बच्चे हैं। दोनों का स्रोत समझ का साक्षी है। दोनों की समझ बिल्कुल एक है। भाषा चाहे थोड़ी अलग-अलग हो लेकिन दोनों का बोध बिलकुल एक है। दोनों अलग-अलग छंद में अलग-अलग राग में एक ही गीत को गुनगुना रहे हैं। इसलिए मैंने इसे महागीता कहा है। इसमें विवाद जरा भी नहीं है। ... यहां कोई प्रयास नहीं है। अष्टावक्र को कुछ समझाना नहीं पड़ रहा है। अष्टावक्र कहते हैं और उधर जनक का सिर हिलने लगता है सहमति में। दोनों के बीच बड़ा गहरा अंतरंग संबंध है बड़ी गहरी मैत्री है। इधर गुरु बोला नहीं कि शिष्य समझ गया।
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