अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं 91 OSHO Talks में से 10 (51 से 60) OSHO Talks धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना ये जो अष्टावक्र के सूत्र हैं, इन्हें तुम ऐसा मत समझ लेना कि कुछ थोड़ी जानकारी बढ़ गई, समाप्त हुई बात। नहीं, इससे तुम्हारा जीवन बढ़े, जानकारी नहीं, तुम्हारा अस्तित्व बढ़े, तो ही समझना कि तुमने सुना। तुम्हारा अस्तित्व फैले। तुम विराट हो, तुम्हें उसकी याद आए। यह सारा आकाश तुम्हारा है: तुम्हें उसकी स्मृति आए। तुम सम्राट हो। उसका बोधमात्र--और सारा भिखमंगापन सदा के लिए समाप्त हो जाता है। ओशो अनुक्रम 51 शून्य की वीणा: विराट के स्वर 52 तू स्वयं मंदिर है 53 धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना 54 साक्षी, ताओ और तथाता 55 परमात्मा तुम्हारा स्वभावसिद्ध अधिकार है 56 आलसी शिरोमणि हो रहो 57 तथाता का सूत्र--सेतु है 58 संन्यास--सहज होने की प्रक्रिया 59 साक्षी स्वाद है संन्यास का 60 प्रभु-मंदिर यह देह री तू स्वयं मंदिर है अष्टावक्र महागीता, भाग छह साक्षात्कार के दो मार्ग हैं, जैसा मैं बार-बार कहता हूं। एक मार्ग प्रेम का है, एक मार्ग ध्यान का। अगर तुम प्रेम के मार्ग से चल रहे हो तो तुम साक्षी की बात ही भूल जाओ। ‘साक्षी’शब्द प्रेम के मार्ग पर नहीं आता। वह प्रेम के भाषा-कोष में नहीं है। प्रेमी साक्षी थोड़े ही होता है, भोक्ता होता है। प्रेमी भगवान को भोगता है, साक्षी थोड़े ही! प्रेमी भगवान को जीता है, पीता है; साक्षी थोड़े ही। ‘साक्षी’ शब्द प्रेम की भाषा का हिस्सा नहीं है। इसलिए तुम्हें अड़चन हो गई। अगर प्रेम की भाषा का उपयोग करते हो, अगर प्रेम के मार्ग पर चलते हो, तो तुम अतृप्त हो जाओ, जैसे पागल प्रेमी। जैसे मजनू। ऐसे तुम पागल हो जाओ। भूलो, साक्षी इत्यादि का फिर कोई प्रयोजन नहीं है। अगर तुम प्रेम के मार्ग पर नहीं चल सकते, अगर प्रेम तुम्हारा स्वाभाविक गुणधर्म नहीं है और ध्यान के मार्ग पर चलते हो, तो फिर अतृप्ति नहीं। फिर साक्षी। फिर तुम जागो। जो है उसे देखो। प्रेम का अर्थ है: जो है उसमें डूबो। साक्षी का अर्थ है: जो है उसे देखो। साक्षी का अर्थ है: किनारे बैठ जाओ। प्रेम का अर्थ है: सागर में डुबकी लगाओ। अब यह तुम्हें कठिन होगा एकदम से समझना कि जिसने सागर में डुबकी लगा ली प्रेम के, वह किनारे पर बैठ जाता है। अब यह विरोधाभास मालूम होगा। और जो किनारे पर बैठ गया साक्षी होकर, उसकी डुबकी लग जाती है। ये दोनों उपाय एक ही जगह पहुंचा देते हैं। उपाय की तरह भिन्न हैं, अंतिम निष्पत्ति की तरह भिन्न नहीं हैं। मगर तुम उस उलझन में अभी न पड़ो। या तो किनारे पर बैठ जाओ। और जिस दिन किनारे पर बैठे-बैठे अचानक पाओगे डुबकी लग गई, बैठे-बैठे लग गई, किनारे पर ही मंझधार पैदा हो गई--उस दिन तुम समझोगे कि अरे, विरोधाभास नहीं था। अलग-अलग भाषावली थी। अलग-अलग कहने का ढंग था। या, सागर में डुबकी लगा कर जब तुम अचानक आंख खोलोेगे और पाओगे किनारे पर बैठे हो--जल छूता भी नहीं, कमलवत--तब तुम समझोगे कि वह जो साक्षी की बात कर रहे थे वे भी ठीक ही बात कर रहे थे। ध्यान और प्रेम अंतिम चरण में मिल जाते हैं। लेकिन अंतिम चरण में ही मिलते हैं, उसके पहले नहीं। उसके पहले दोनों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। प्रेमी रोता है--रसविभोर, पुकारता है, विकल होकर। ध्यानी शांत होकर बैठ जाता है--न पुकार, न विरह। ध्यानी तो बिलकुल शून्य होकर बैठ जाता है; कहीं जाता ही नहीं, कुछ खोजता ही नहीं; सब आकांक्षा से शून्य हो जाता है। प्रेमी सारी आकांक्षाओं को एक ही आकांक्षा में बदल देता है--प्रभु को पाने की। ध्यानी शून्य हो जाता; प्रेमी परमात्मा को अपने में भरने लगता है। और शून्य और पूर्ण आखिरी स्थिति में एक ही चीज सिद्ध होते हैं--एक ही चीज को देखने के दो ढंग। तुम इस उलझाव में मत पड़ना। मुझे सुनने वाले इस उलझाव में पड़ सकते हैं। ऐसी झंझट पहले न थी। कम से कम दूसरे गुरुओं के साथ न थी। मीरा कहती तो प्रेम की ही बात कहती थी; साक्षी की बात ही न उठाती थी। और अष्टावक्र कहते तो साक्षी की ही बात कहते; प्रेम की बात न उठाते। सुनने वालों को सुविधा थी। मैं कभी तुमसे प्रेम की बात कहता हूं, कभी साक्षी की--इससे विरोधाभास पैदा हो जाता है। लेकिन मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अष्टावक्र आधी मनुष्यता के लिए बोले और मीरा भी आधी मनुष्यता के लिए बोली--मैं पूरी मनुष्यता के लिए बोल रहा हूं; पूरे मनुष्य के लिए बोल रहा हूं। इससे अड़चन आती है। और इस बोलने के पीछे कुछ प्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि अब तक जितने धर्म पैदा हुए सब अधूरे हैं। जैसे जैन धर्म है, वह साक्षी का धर्म है। उसमें स्त्री को जगह नहीं। उसमें प्रेमी को जगह नहीं। उसमें भक्ति-भाव को जगह नहीं। ओशो