Avadh Ke Sitaram

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महादेवी वर्मा के अनुसार कविता कवि विशेष की भावनाओं का वर्णन है और वह चित्रण इतना ठीक है कि उससे वैसी ही भावनाएँ किसी दूसरे के हृदय में भी आविर्भूत होती हैं। 'अवध के सीता राम इसी कसौटी पर कसा हुआ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में हृदय की मुक्त साधना का शब्द विधान है। इसमें कविता की विभिन्न विधाओं एवं रसों का मिश्रण है। जहाँ 'पुरुष प्रकृति से दोष जगा अनुचित सर्वथा रहा मुझको' में पुरुषों में अपने स्वभावजनित दोषों को मानने की शक्ति क्षमता प्रदर्शित है वहीं अगले ही प्रसंग 'तुम तो नारी धृति शील क्षमा लक्ष्मी मूरति देखूँ तुमको' में नारियों के प्रधान गुणों की सराहना भी है। जहाँ एक ओर 'छू छूकर देख रहे लड़के कोई कूद कूद चढ़ता ऊपर' में बाल वानरों का अद्भुत रस है वहीं 'जब देखा वीर जटायू वट बह चला नीर दृग तीनों के' में करुण रस का रसास्वादन है। जहाँ 'स्नेह प्यार के रंग मिला मुँह लाल किया रघुवीर में शृंगार रस के दर्शन हैं वहीं 'खिल खिला उठीं वनिताएँ सब हैं हाथ कहाँ? संगीत कहाँ?” में हास्य रस का भी मिश्रण है। या फिर चपल मनोहर छवियाँ उतरेंगीं आँगन में' वात्सल्य भाव से भरे वाल्मीकि की मनोदशा दर्शाता है वहीं 'सुचिता समता जन जीवन हो यह भाव शीघ्र लाना होगा' नीति-धर्म की अटलता पर विश्वास जगाता है। अंत में 'भर गया ग्लानि से मन उनका कितना उत्पात हुआ जग में' में वीभत्स रस प्रकट होता है तो उसका परिणाम 'मैं बैठूंगा अब मग्न ध्यान एकांत निवास करूँगा अब शांत रस में प्रकट होता है। इन्हीं रसों छंदों गीतों चौपहियों दोहों घटनाओं भावनाओं कल्पनाओं तर्कों आदि का समुद्र है यह खण्ड काव्य ।
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