गैब्रियल गार्सिया मार्कोस ने एक बार कहा था कि सामान्यतया मेरा विश्वास है कि जब आपके पास मूलभूत सविधाएं होंरोटी- कपड़ा-मकान की तभी आप बेहतर लिख सकते हैं।इस रुमानी ख्याल का मैं पुरजोर विरोध करता हूं कि एक लेखक को फटेहाल होना चाहिएभूख से तड़पता एक एक पाई को तरसतातभी वह बढ़िया लेखन कर सकता है।मेरा मानना है कि आप तभी बढ़िया लिख सकते हो जब आपका पेट भरा हुआ हो और आपके पास कम -से -कम एक इलेक्ट्रिक टाइपराइटर हो।''उनकी यह बात उन मुल्कों में सही होगी जहां लेखक को लेखक होने के नाते ही अनेक सुविधाएं जुटाने की सहूलियत रहती है।यहां अनेक लेखक छोटी से छोटी बात के लिए संघर्ष करते हैं।कितनी ही पांडुलिपियां इस लिए रूपाकार नहीं पातीं कि टाइप करवाने की सुविधा नहीं होती। लेकिन तब भी हम जैसे अनेक लेखक जीवन संघर्ष के साथ जितना संभव हो पाता है निरंतर इसी प्रयास में हैं कि जन जीवन को अच्छा पढ़ने से वंचित न होना पड़े।साहित्य और कलाएं जो कुछ कर पा रही हैंवह अंतिम नहीं हैअधूरा होकर अपने मकसद में कामयाब रहना असंभव नहीं है।साहित्य से क्रांति नहीं होती लेकिन साहित्य बड़ा काम यह करता है कि हमारी संवेदना जगाये रखता है।यह क्या कम महत्वपूर्ण है?
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