गागर में सागर की तरह इस पुस्तक में हिन्दी के कालजयी कवियों की विपुल काव्य-रचना में से श्रेष्ठतम और प्रतिनिधि काव्य का संकलन विस्तृत विवेचन के साथ प्रस्तुत है।सूफ़ी-संत परंपरा से संबंध रखने वाले बाबा फ़रीद का मध्यकालीन भक्ति कविता साहित्य में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका महत्त्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि वे हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के गुरु थे और उनकी 130 रचनाएँ गुरु गं्रथ साहिब में सम्मिलित हैं। जहाँ एक ओर वे भक्ति का महत्त्व समझते थे तो दूसरी ओर दैनिक जीवन में नैतिकता निर्मलता और आचरण की शुचिता भी उनके लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण थी। यह दोनों पहलू बाबा फ़रीद की वाणी और व्यवहार में हमें मिलते हैं। उनकी वाणी मुलतान में बोली जानेवाली पंजाबी (सरायकी) में है। सरायकी में संस्कृत फ़ारसी अरबी सिंधी और कई भाषाओं के शब्द मिलते हैं।एक बार किसी ने बाबा फ़रीद को कैंची भेंट की तो उन्होंने उस शख्स को कहा ‘‘तुम मुझे कैंची नहीं सुई दो। मैं काटने की जगह जोड़ता हूँ।’’ यह जोड़ने की भावना ही बाबा फ़रीद की सबसे बड़ी शिक्षा है जिसकी आज इक्कीसवीं सदी की दुनिया में बहुत ज़रूरत है।इस पुस्तक का चयन व संपादन माधव हाड़ा ने किया है जिनकी ख्याति भक्तिकाल के मर्मज्ञ के रूप में है। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष माधव हाड़ा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में फ़ैलो रहे हैं। संप्रति वे साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की साधारण सभा और हिन्दी परामर्श मंडल के सदस्य हैं।
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