प्रस्तुत कहानियों के रचनाकार मनोज कुमार पांडेय अब तक हिन्दी जगत में अपनी पक्की पहचान बना चुके हैं। इनके पहले के तीन कहानी-संग्रह पुख्ता सबूत हैं कि इक्कीसवीं सदी के इस युवा रचनाकार ने कहानी का दामन मजबूती से थाम रखा है। मनोज के लेखन का सबसे गौरतलब पहलू यह है कि ये कहानी–लेखन के ढर्रे और फ्रेम को लगातार चुनौती देते चलते हैं। खुद तोड़-फोड़ करते हैं और कहानी की कहन को कई कदम आगे ले जाते हैं। इन कहानियों की प्रतीक-योजना बड़ी प्रत्यक्ष प्रणाली से उजागर है। लेखक ने हर कहानी में नए सिरे से जोखिम उठाया है। स्थितिगत व्यंग्य की विद्रूपता अन्य किसी प्रणाली से व्यक्त की भी नहीं जा सकती। कहानियों को इस परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की जरूरत है। इन कहानियों में यदि आख्यान की सादगी है तो कबीर की तरह उद्देश्य की खड़ी चोट भी है। कहानी केवल राजा और प्रजा की नहीं रहती वरन् यह जन और तंत्र की हो जाती है। इन्हें पढ़कर लगता है कि आज के समय की आँख में उँगली डालकर सच्चाई दिखाने का काम लेखक के जिम्मे है। ये कहानियाँ अपनी सरलता में जटिल यथार्थ की दस्तावेज हैं। मनोज समय के सघन अँधेरों पर रचनाओं की रोशनी और रोशनाई डाल कर बताते हैं; बचो बचो इस फैलते अंधकार से बचो। यही एक लेखक का कर्तव्य होता है। –ममता कालिया गहरे प्रेक्षण बदलावों को पकड़ने वाली अचूक संवेदनशीलता और समर्थ कथा-भाषा से मनोज कुमार पांडेय ने इक्कीसवीं सदी में उभरे कहानीकारों के बीच अपनी खास पहचान बनाई है। 'पानी' और 'शहतूत' जैसी कहानियों का यह लेखक अपनी रचनाओं के लिए कभी बहुत लम्बा इन्तजार नहीं करवाता। बावजूद इसके हर बार उसके पास कहने के लिए कोई नई बात होती है; साथ ही कहने की अलग भंगिमा भी। इस बार मनोज जिस स्वर्णदेश की कहानियाँ सुना रहे हैं वह उनके अब तक के लेखन से इस मायने में बिलकुल जुदा है कि यहाँ किस्सागोई वाले अन्दाज में एक ऐसा दिक्काल उपस्थित है जो अपनी सूरत में हमारा न होकर भी सीरत में सौ फीसद हमारा है। यह अन्योक्ति वाली युक्ति में गहा हुआ हमारे समय का सार है। पढ़कर हम आश्वस्त होते हैं कि अतीत-प्रेमी राजा ने भले ही स्वर्णदेश की भाषा में घुस आए विजातीय शब्दों की छँटनी करके उसे दिव्यांग बना दिया हो और लोग कुछ भी बोलने-लिखने में असमर्थ हो चले हों हमारी भाषा का दमखम अभी बचा हुआ है। यह कथा-शृंखला इसका जिन्दा सबूत है। –संजीव कुमार.
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