बादलों में आग जैसा मुहावरा ज्यादातर हिन्दी भाषी पाठकों को कुछ अजनबी या बिजली कौंधने- कड़कने की ध्वति देता हुआ-सा लग सकता है लेकिन कश्मीर के जीवन और कश्मीरी भाषा में उसका एक निश्चित और शुभ अर्थ है। यह माना जाता है कि बादलों में अगर चिनगारियाँ दिखाई दें तो अगले दिन आसमान साफ होगा धूप खिली होगी और बर्फ पर चमकती दिखेगी।क्षमा कौल की कविताओं की इस पहली किताब में बादलों से घिरी घाटियोंकाले पड़ते आसमान और बर्फ और शीत के बीच अकसर दिख जाने वाली आग और धूप का वह स्वप्न मौजूद है जो अपने ''स्वर्ग'' से विस्थापित होकर शहरों में लाचार भटकते कश्मीरियों के स्वप्न से भी जुड़ गया है। क्षमा कौल स्वयं उन विस्थापितों में से एक हैं और उनकी डायरी ''समय के बाद'' अपनी मूलभूमि से बेदखल होने की पीड़ा और उसके छूटने की स्मृति के सघन वर्णन के कारण हिन्दी में चर्चित-प्रशंसित हुई है। उसमें एक ऐसे विस्थापित की सच्चाइयाँ थीं जो एक स्त्री भी है और ऐसी स्त्री की भावनाएँ थीं जो एक विस्थापित भी है।** निष्कासनविस्थापन और निर्वासन क्षमा कौल की सम्वेदना के केन्द्रीय बिम्ब हैं। लेकिन उनकी कविता का सफर निर्वासन में जाकर समाप्त नहीं होता बल्कि वहाँ से शुरू होता है और इसीलिये उसमें इतने अनदेखे-अनजाने मोड़ और पड़ाव और इतनी आकस्मिक गतियाँ और ठहराव हैं कि वह एक साथ संताप करती और स्वप्न देखती कविता बन जाती है। इस कविता में भौतिक और आत्मिक उपस्थितियाँ जैसे एक हो गयी हैं यथार्थ और स्वप्न के बीच के अंतराल सिमट आये हैं और एकालाप और संवाद आपस में मिल-जुल गये हैं। क्षमा कौल बार-बार अपने छूटे हुए घर शहर सम्बन्धों और विरासत ही नहीं कश्मीर की सूफी परम्परा और प्राचीनता और ललद्यद जैसी महान कवयित्री तक जाती हैं और इन सबसे जीवन माँगती हैं।
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