स्त्रियाँ जो मिटाना चाहती हैं अपने माथे पर लिखी मूर्खता किताबों में उनके नाम दर्ज चुटकुलों और इस चलन को भी जो कहता है ‘‘यह तुम्हारे मतलब की बात नहीं’’ मगर सिमट जाती हैं मिटाने में कपड़ों पर लगे दाग चेहरों पर लगे दाग और चुनरी में लगे दागों को स्त्रियाँ जो होना चाहती हैं खड़ी चैपालों पान ठेलों और चाय की गुमटियों पर करना चाहती हैं बहस और निकालना चाहती हैं निष्कर्ष मगर सिमट जाती हैं निकालने में लाली-लिपस्टिक-कपड़ों और ज़ेवरों के दोष कौन हैं ये स्त्रियाँ? क्या ये सदियों से ऐसी ही थीं? या बना दी गईं? अगर बना दी गईं तो बदलेंगी कैसे? बदलेंगी. . . . मगर सिर्फ़ तब जब वे ख़ुद चाहेंगी बदलना सिमटना छोड़कर। सवाल तो यह है कि क्या स्त्री खुद अपनी मर्ज़ी से सिमटकर रह जाती है या फिर उसका परिवार परिवेश समाज और समाज के बहेलिए उसे सिमटने पर विवश करते हैं। यह कहानी संग्रह उन सभी स्त्रियों की कहानी है जिनके जीवन में बहेलिए आए उन्हें कैद करने की कोशिश भी की मगर क्या वे कैद हुईं? यह ज़रूरी नहीं कि इन कहानियों में बहेलिए सिर्फ़ पुरुष ही हों स्त्रियाँ ख़ुद भी पितृसत्ता को ढोते-ढोते अब उसका अभिन्न अंग बन गई हैं. . . . युवा लेखिका अंकिता जैन का कहानी-संग्रह बहेलिए हिन्दी में इनकी तीसरी पुस्तक है। 2018 में प्रकाशित मैं से माँ तक जो औरत के माँ बनने की अनुभव-यात्रा है बहुत सराही गयी। इससे पहले प्रकाशित कहानी-संग्रह एक ऐसी वैसी औरत भी लोकप्रिय हुआ। साहित्य में पूरी तरह लीन होने से पहले तीन वर्षों तक अंकिता जैन ने संपादक और प्रकाशक के रूप में रू-ब-रू दुनिया पत्रिका का प्रकाशन किया। इनका सम्पर्क है: postankitajainatgmail. Com.
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