सत्संग: हृदय का हृदय से मौन मिलन मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा विचार छूटे वैसे ही भेद गया द्वैत गया दुई गई दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार ‘मैं’ नहीं है ‘तू’ नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है मुसलमान नहीं है ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है भगवत्ता है सत्य है। और उसका स्वाद एक है। फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर यात्रा अलग होगी। बुद्ध अपने ढंग से पहुंचेंगे महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे जीसस अपने ढंग से जरथुस्त्र अपने ढंग से। लेकिन यह ढंग यह शैली यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीं तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीढ़ियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है रास्ता भी मिट जाता है राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहां न पथिक है वहां। जैसे नदी सागर में खो जाए। ओशो
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