Baisavi Sadi

About The Book

सड़ा गला खराब अन्न भी उस समय करोड़ों आदमियों को पेट भर न मिलता था। कितने ही लोग पेट के लिए गाँव-गाँव भीख माँगते फिरते थे। मैंने अपनी आँखों से अनेक स्थानों पर ऐसे लड़कों और आदमियों को देखा था जो कि फेंके जाते जूठे टुकड़ों को कुत्तों के मुँह से छीनकर खा जाते थे। यह बात नहीं कि लोग परिश्रम से घबराते थे। दो-चार चाहे वैसे भी हों; किन्तु अधिकतर ऐसे थे जो रात के चार बजे से फिर रात के आठ-आठ दस-दस बजे तक भूखे-प्यासे खेतों दुकानों कारखानों में काम करते थे फिर भी उनके लिए पेट-भर अन्न और तन के लिए अत्यावश्यक मोटे-झोटे वस्त्र तक मुयस्सर न होते थे। बीमार पड़ जाने पर उनकी और आफ़त थी। एक तरफ बीमारी की मार दूसरी ओर औषधि और वैद्य का अभाव और तिस पर खाने का कहीं ठिकाना न था। १९१८ के दिसम्बर का समय था जबकि सिर्फ़ इन्फ्लुयेंजा की एक बीमारी में और सो भी ४-५ सप्ताह के अन्दर ६० लाख आदमी भारतवर्ष में मर गये। मरनेवाले अधिकतर गरीब थे जिनके पास न सर्दी से बचने के लिए कपड़ा था न पथ्य के लिए अन्न न दवा के लिए दाम था न रहने के लिए साफ़ मकान वह पशु-जीवन नहीं नरक का जीवन था। आदमी कुत्ते-बिल्ली की मौत मरते थे। मुझे आज-कल की भाषा का बोध नहीं अतः उसी पुरानी भाषा में ही बोल रहा हूँ। संभव है आप लोगों को कहीं-कहीं समझने में कठिनाई हो।
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