बचपन से स्कूलों में यही पढ़ाया जाता रहा हैं कि भारत एक महान देश हैं। ये पढ़ने के बाद जब हम स्कूल से घर आते हैं तो उन्हीं गलियों और मोहल्लों से गुजरते हैं जो कि जाति और धर्म के आधार पर बँटे होते हैं। भेदभाव इतना ही फैला हुआ हैं जितनी कि हवा और पानी पर किताबों में इसका कहीं जिक्र तक नहीं। और जिस महानता के बारें में पढ़ा और पढ़ाया जाता हैं वो कहीं दूर तक नहीं। गाँव के टीले पर चढ़कर देखो तो ब्राह्मणों का दलितों का मुसलमानों का और राजपूतों का मोहल्ला दिखाई देता हैं पर जिस महानता के गीत गाये जाते हैं वो कहीं भी नहीं। और सबसे ज्यादा दुःख की बात ये हैं कि आजादी के सत्तर साल बाद भी इस भेदभाव में कहीं कोई कमी नहीं आयी हैं। बल्कि राजनेताओं की मेहरबानी से बढ़ा ही हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों की हालत बद से बदत्तर होती जा रही हैं। उन्हें हर चुनाव से पहले ये महसूस करवाया जाता हैं कि देश में उनका अस्तित्व सिर्फ वोट देने के लिए हैं। वो भी जाति और धर्म के नाम पर। और ये भेदभाव सिर्फ जाति और धर्म तक सीमित नहीं हैं। अगर कोई शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग भी हो तो हम उतनी ही शिद्दत से भेदभाव करते हैं जितनी शिद्दत से हम लड़कियों के साथ भेदभाव करते हैं। लड़कियों के साथ होने वाले इस भेदभाव से सिर्फ वो ही लड़कियाँ बच पाती हैं जिन्हे गर्भ में ही मरवा दिया जाता हैं। दूसरी सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार हैं जिसने हमारे देश की महानता में और चार चाँद लगा दिए हैं। ये कहना मुश्किल होगा कि देश में भेदभाव ज्यादा फैला हुआ हैं या फिर भ्रष्टाचार। भेदभाव की तरह ये भी जिंदगी का इतना अभिन्न अंग हो गया हैं कि दिखाई भी नहीं देता जबकि आँखों के सामने हो रहा होता हैं। इस किताब में मैंने दो लघु-उपन्यास समाहित किये हैं। पहली कहानी ‘बाली और सुग्रीव’ जिसका मुख्य पात्रा बाली नाम का इंसान हैं जो कि बहुत ही धार्मिक और भ्रष्ट हैं जैसा की अमूमन होता ही हैं। और जैसे कि उम्मीद की जा सकती हैं साथ में बहुत बेवकूफ भी हैं। धर्म और भ्रष्टाचार की इस जिंदगी में उसका छोटा भाई सुग्रीव उसका साथ देता हैं लेकिन तभी तक जब तक कि वो उसके लिए फायदेमंद होता हैं। बाली अपने और अपने भाई द्वारा किये हर भेदभाव भ्रष्टाचार और बेवकूफाना आचरण को धर्म के नाम पर सही ठहराता जाता हैं। ये स्वार्थ का रिश्ता और बेवकूफी भरे कर्म कितने दिन चलते हैं और उनका अंत क्या होता हैं ये तो आपको कहानी पढ़कर ही मालूम होगा लेकिन अंत में बाली अपनी हरकतों से हंसी का पात्रा जरूर बन जाता हैं। दूसरी कहानी ‘दलित की भयंकर शक्ति’ एक ऐसे इंसान के बारे में हैं जो पुत्रा मोह में किसी ढोंगी बाबा के चक्कर में फंस जाता हैं। और पुत्रा प्राप्ति के लिए अवैज्ञानिक तरीके अपनाकर गर्भ में पल रहे बच्चे को नुकसान पहुँचा देता हैं। नतीजा यह होता हैं कि उसका बच्चा दिमागी रूप से पूर्णतः विकसित नहीं हो पाता हैं। और जब ऐसे बच्चों को समाज के विशेष सहयोग की जरुरत होती हैं देखभाल की जरुरत होती हैं तब समाज उसके बिलकुल विपरीत जाकर उन पर अत्याचारों की बारिश कर देता हैं। यह कहानी ऐसे ही एक बच्चे की हैं जो इस समाज की यातनाएं सहता सहता एक दिन खुद भयंकर शक्ति का मालिक बन जाता हैं। फिर समाज अपने आप को बचाने के लिए इधर उधर भागता हैं पर क्या उस दलित की भयंकर शक्ति से अपने आप को बचा पाता हैं यह इस कहानी में बताया गया हैं। मैं ये दावा तो नहीं करता कि ये दोनों कहानियाँ बिलकुल सच्ची हैं पर इतना दावा हैं कि अगर आपने जिंदगी को बहुत करीब से देखा हैं तो इन कहानियों के पात्रों को आप अपनी जिंदगी के कई पात्रों से जोड़ पाएंगे। मैं इतना दावा तो कर सकता हूँ कि इन कहानियों को पढ़ने के बाद आप अपनी जिंदगी के आसपास फैले भ्रष्टाचार और भेदभाव को ज्यादा स्पष्ट देख पाएंगे और शायद इनके खिलाफ खड़े भी हो पाएंगे। और जिस दिन हम सारे भारतवासी जाति धर्म लिंग और विकलांगता के नाम पर होने वाले भेदभाव और भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हो जायेंगे उस दिन स्वतः ही भारत एक महान देश बन जाएगा। फिर जिस महानता का जिक्र अब तक सिर्फ किताबों में ही होता रहा हैं वो महानता किताबों में न रहकर देशभर में दिखाई देगी।
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