बारूद के बिस्तर पर : (हिन्दी ग़ज़ल में उतरता यथार्थ) : प्रसिद्ध गीतकार ग़ज़लकार डॉ. वशिष्ठ अनूप के इस ग़ज़ल संग्रह ‘बारूद के बिस्तर पर’ की ग़ज़लों में आमजन के प्रति गहरी संवेदना तथा परिवेश के प्रति गहरी सन्नद्धता मिलती है। ग़ज़लकार की यह परिवेशगत सन्नद्धता और जनपक्षधरता उनकी ग़ज़लों को सार्थक बनाती है। वे एक तरफ़ अगर अपने जीवन के आत्मीय स्मृति पलों को अपनी ग़ज़लों में जगह देते हैं तो दूसरी तरफ गाँव शहर और प्रकृति की विसंगतियों को सार्थक बिम्बों के जरिए रूपायित भी करते हैं। इस संग्रह में ऐसे अनेक शेर हैं जिनके माध्यम से वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृजन-सरोकारों को भी स्पष्ट करते गए हैं जिससे पाठकों के सामने ये शेर अधिक विश्वसनीय और आत्मीय बन गए हैं- हमारे गाँव में चलकर कभी देखें नज़ारा यह मगर के साथ कैसे आदमी पानी में रहता है. इन ग़ज़लों में जहाँ ग़ज़लकार का जीवनबोध उजागर हुआ है वहीं विसंगत वर्तमान के विरुद्ध उसका प्रतिरोध का स्वर यूँ मुखरित हुआ है- ये मंजर देखकर हर शख्स हैरानी में रहता है पुलिस का महकमा गुंडों की निगरानी में रहता है इन ग़ज़लों में यदि विसंगतियों की शिनाख्त है तो उनके विरुद्ध संघर्ष और परिवर्तन का आह्वान भी है। इन ग़ज़लों में उनका अन्दाज़े-बयाँ या अभिव्यंजना-कौशल प्रभावोत्पादक है- शिकारी हैं क़फ़स हैं जाल हैंमक्कारियां भी हैं परिंदों ने कभी उड़ना कभी गाना नहीं छोड़ा इसलिए मुझे विश्वास है कि ‘बारूद के बिस्तर पर’ ग़ज़ल संग्रह अपने अनूठेपन तथा प्रेम और प्रतिरोध की समन्वित व्यंजना के जरिए हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा में एक नयी राह निर्मित करेगा। : *हरेराम समीप*
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