BATKAHI

About The Book

संस्कृति मनुष्य के उन व्यापारों तथा अभिव्यक्तियों का नाम है जिन्हें वह साध्य रूप में महत्वपूर्ण मानता है, जो साध्यात्मक या चरम मूल्य (Ultimate Values) हैं। किंतु साध्य तथा साधनों का अंतर एक सापेक्ष वस्तु है। सांस्कृतिक जीवन हम उसे कह सकते हैं जिसमें हमारा संबंध अर्थपूर्ण वास्तविकताओं से स्थापित होता है, भले ही वे अनुपयोगी हों। इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य केवल उपयोगिता की परिधि में जीवित नहीं रहता। उसमें कुछ ऐसी रुचियाँ भी पाई जाती हैं जो उपयोगिता का अतिक्रमण करती हैं। मनुष्य बौद्धिक जिज्ञासा तथा सौन्दर्य की भूख भी मिटाना चाहता है। ऐसी स्थिति में वह एक सांस्कृतिक प्राणी के रूप में जन्म लेता है। संस्कृति का विषय वस्तु-सत्ता के वे पहलू हैं जो निर्वैयक्तिक रूप से अर्थवान हैं। धान रोपते समय किसान गीत भी तो गाने लगता है। मनुष्य का चैतन्य-सत्व असंख्य रूपों में गठित रहता है, जिनके रूपों की चर्चा भी निश्चित ही संस्कृति का अंग है। हाँ! कोई चर्चा कितनी भी वैज्ञानिक तथा वस्तुनिष्ठ क्यों न हो, वह आत्मगत रुचियों द्वारा निर्धारित रहती है। मैंने हर सवाल को अपने जीवन-विवेक और अनुभूति के धरातल पर ही देखने समझने का प्रयास किया है।
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