पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की आठ कहानियों का संकलन चाकलेट आधुनिक हिन्दी साहित्य में समलैंगिक रिश्तों पर पहली पुस्तक मानी जाती है। 1927 में इसके प्रकाशित होते ही पक्ष-विपक्ष में एक ज़ोरदार बहस छिड़ गयी जिसमें प्रेमचंद से लेकर महात्मा गाँधी तक शामिल थे। उग्र का मानना था कि समलैंगिकता पर लिखकर वे लोगों में इसके प्रति जागरूकता पैदा करना चाहते थे। लेकिन उनके विरोधियों ने इन कहानियों को ‘घासलेटी’ कहकर नकार दिया। साहित्यिक परिवेश में यह विवाद दो दशक तक ही चला लेकिन समाज में आज भी यह ऐसा विषय है जो विवादों से अछूता नहीं है। 2018 में भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा समलैंगिकता को मान्यता देने के बावजूद ऐसे रिश्तों को आज भी समाज की खुले मन से स्वीकृति नहीं मिली है। सदियों पुरानी सभ्यता वाले हमारे देश में जहाँ कामसूत्र की रचना हुई और महाभारत में शिखंडी का पात्र मिलता है - वहाँ कामुकता समलैंगिकता अश्लीलता और सेंसरशिप जैसे मुद्दों पर लगभग सौ साल पहले छिड़ी बहस का अब तक पूरी तरह से निवारण नहीं हो सका है। अपने उपनाम ‘उग्र’ की तरह पांडेय बेचन शर्मा का लेखन भी उग्र था। वे अपने बेबाक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी लेखन के लिए जाने जाते थे। वे सामाजिक उद्धार और देश की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध थे। अंग्रेज़ी साम्राज्य का विरोध करने के कारण नौ महीने तक वे जेल की सलाखों के पीछे रहे। उनके लेखन में राष्ट्रवाद महिलाओं का शोषण भ्रष्टाचार और जातिवाद का विरोध देखा जा सकता है। पाठक इन कहानियों को ‘घासलेटी’ समझे या समाज की एक सच्चाई का बयान - यह उसकी निजी सोच पर निर्भर करता है।शरीर एक पुरुष का भावनाएँ एक नारीअपनी असल पहचान स्थापित करने की एक ट्रांसजेंडर के साहसपूर्ण संघर्ष की अद्भुत जीवन-यात्रा जो 23 सितम्बर 1964 में शुरू होती है जब दो बेटियों के बाद चित्तरंजन बंद्योपाध्याय के घर बेटा पैदा हुआ। बेटे सोमनाथ के जन्म के साथ ही पिता के भाग्य ने बेहतरी की ओर तेज़ी से ऐसा कदम बढ़ाया कि लोग हँसते हुए कहते कि अक्सर बेटियाँ पिता के लिए सौभाग्य लती हैं लेकिन इस बार तो बेटा किस्मत वाला साबित हुआ। वे कहते ‘चित्त! यह पुत्र तो देवी लक्ष्मी है!’ सोमनाथ जैसे-जैसे बड़ा होता गया उसमें लड़कियों जैसी हरकतें भावनाएँ पैदा होने लगीं और लाख कोशिश करने के बाद भी रुक या दब नहीं सकीं।
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