आधुनिक मानव-जाति [Human-Being] की सबसे पहली मांग मानवाधिकार [Human-Rights] हैं। चूंकि मानवाधिकार ही मानव जीवन को सरल सुखमय सुविधापूर्ण परिपुष्ट और आत्मनिर्भर बनाते हैं। वस्तुतः यह मानवाधिकार ही होते हैं जो मानव को मानव बनाते हैं। कदाचित् यदि मानव को उसके मूलभूत मानवाधिकार प्राप्त न हों तो मानव निश्चय ही कुछ और बन जायेगा; परन्तु मानव कदापि नहीं बन पायेगा। अतः मानवाधिकार मानव-जाति की गरिमायुक्त एवं उत्तम-जीवन-शैली की उन मूलभूत सुविधाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति का योग हैं जिन्हें मानव-जाति के उत्थान एवं विकास के लिये अपरिहार्य अनुल्लंघनीय और अहस्तान्तरणीय माना जाता है तथा जो मानव-जाति के प्रत्येक सदस्य के लिये समान रूप से प्राप्तव्य हैं। मानव-जाति के प्रत्येक सदस्य को समान रूप से प्राप्तव्य इन मूलभूत मानवाधिकारों की प्राप्ति में यदि किसी भी प्रकार की कोई बाधा उत्पन्न हो जाती है तब यह स्थिति मानवाधिकार हनन की स्थिति कहलाती है और यही स्थिति प्रतिफलित रूप में 'मानवाधिकार हनन का मुद्दा' नाम से सम्बोधित की जाती है। मानवाधिकार हनन की इस स्थिति का निवारण करना राष्ट्र के लिये सहज न होकर चुनौतीपूर्ण होता है। चूंकि यह स्थिति व्यष्टि रूप में मानव से और समष्टि रूप में अशेष मानव-जाति से जुड़ी होती है। अतः मानवाधिकार हनन की इस चुनौती का नैतिकतापूर्वक और निष्पक्षतापूर्वक निवारण करना न केवल व्यक्ति विशेष अथवा वर्ग विशेष का अपितु अखिल राष्ट्र अथवा मानव-जाति का प्रथम और अनिवार्य दायित्व हो जाता है ताकि अखिल राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में जन-जन को उनके मूलभूत मानवाधिकार सहजतापूर्वक प्राप्त हो सकें।
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