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*भारत में राष्ट्रवाद*गांधी अपने सिद्धांतों: अहिंसा सत्य और प्रेम की आधारशिला पर टिका ऐसा “ग्राम स्वराज” बनाना चाहते थे जिसका प्रत्येक सदस्य साहसी होने के साथ ही दयालु उदार सभ्य सुसंस्कृत और सुसंस्कारित मनुष्य भी हो । आख़िर क्यों और कैसे इस सपने की कोख़ से जन्मा जनतंत्र खाये-अघाये हिंसक-असहिष्णु बर्बरों द्वारा चलाये जाने वाले समाज की दिशा लेने लगा ! आख़िर क्यों गांधी के ‘महात्म्य’ का करिश्मा अपने सपनों के स्वर्णिम स्वर्ग को भारत भूमि पर नहीं उतार सका ? ये सवाल ‘महात्मा के करिश्मे से हासिल आज़ादी’ और ‘जन संघर्षों से हासिल आज़ादी’ के बुनियादी अंतर को रेखांकित करते हैं । महात्मा के प्रति भक्तिभाव ने निर्विवाद रूप से राष्ट्र को ब्रिटिश औपनिवेशिक़ शासन के विरुद्ध एकल संघर्ष के लिए प्रभावी रूप से गोलबंद किया । मगर इसी के साथ इस भक्तिभाव ने वैकल्पिक संघर्षों की राह को भी प्रभावी रूप से अवरुद्ध किया **टैगोर मानते थे कि पूंजीवाद की उत्तर-धार्मिक (post-religious) प्रयोगशाला में जन्म लेने वाला आधुनिक राष्ट्रवाद लालच स्वार्थ ताकत और संपदा-वैभव की भूख बढ़ा कर ‘राजनीतिक और वाणिज्यिक मनुष्य’ अर्थात ‘सीमित उद्येश्य’ का मनुष्य निर्मित करता है । ऐसा राष्ट्रवाद मनुष्य की ‘सामाजिक जीव’ के रूप में स्वतःआवेगित स्व-अभिव्यक्ति कभी नहीं बन सकता ।**विनायक दामोदर सावरकर पर पश्चिम के लिबरल-नवजागरण की सामाजिक-राजनीतिक-वैज्ञानिक-सांस्कृतिक दृष्टि दर्शन और विचार के प्रभाव ने उन्हें विशुद्ध प्रयोजन/परिणाम/अवसरवादी बनाया । सावरकर ने खुद तर्क और विज्ञान का पक्षधर होते हुए भी अपने ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के निहित लक्ष्य के लिए धर्म के आधार पर भावनात्मक-अधिभूतवादी जन गोलबंदी को सफल रणकौशल के रूप में अपनाया ।