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About The Book
Description
Author
धन चला गया कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया कुछ चला गया। चरित्र चला गया तो समझो सबकुछ चला गया।’ यानी संस्कार चरित्र-निर्माण के मूलाधार हैं। संस्कार घर में ही जन्म लेते हैं। इनकी शुरुआत अपने परिवार से ही होती है। संस्कारों का प्रवाह बड़ों से छोटों की ओर होता है। बच्चे उपदेश से नहीं अनुकरण से सीखते हैं। वे बड़ों की हर बात का अनुकरण करते हैं। बालक की प्रथम गुरु माता ही होती है जो अपने बच्चे में आदर स्नेह अनुशासन परोपकार जैसे गुण अनायास ही भर देती है। परिवार रूपी पाठशाला में बच्चा अच्छे-बुरे का अंतर बड़ों को देखकर ही समझ जाता है। आज की उद्देश्यहीन शिक्षा-पद्धति बच्चों का सही मार्ग प्रशस्त नहीं करती। आज मर्यादा और अनुशासन का लोप हो रहा है। ज्ञान की उपेक्षा तथा सादगी का अभाव होता जा रहा है। प्रकृति में विकार आ जाने तथा सामाजिक वातावरण प्रदूषित हो जाने के कारण आज संस्कारों की बहुत आवश्यकता है। प्रस्तुत पुस्तक में संस्कारों की व्याख्या अत्यंत सुबोध भाषा में समझाकर कही गई है। आज की पीढ़ी ही नहीं हर आयु वर्ग के पाठकों के लिए एक पठनीय पुस्तक।