प्रख्यात कथाकार और स्त्री विमर्शकार नीरजा माधव के विचारक रूप से साक्षात्कार कराती पुस्तक है–––‘भारतीय स्त्री विमर्श’ । यहां वह बंधे बंधाये स्त्री विमर्श के खांचे से अलग एक ऐसी विचार सरणी बनाती है जो भारतीय मूल्यों के अधिक निकट तो है ही वह धुंध भी साफ करती है जो पाश्चात्य प्रभाव में हमारे स्त्री विमर्शकारों ने जमा दी थी । वह स्त्री विमर्शकारों का प्रारम्भ ऋषिकाओं की परम्परा से करते हुए उसे वैदिक युग से प्रारम्भ मानती हैं । वह स्त्री को विचार के लिए प्रेरित करती हैं कि वह तथाकथित ‘मुक्ति’ के चंगुल में फंसने की बजाय विश्वास की टूटती सीमाओं को बचाये । उनके विचार में भारतीयता व अपनी संस्कृति के प्रति आत्मीय ललक मिलती है । वह भारतीय स्त्री को चेतना का प्रतीक मानती हैं । उन्हें स्त्री का पुरुष जैसा बन जाना नहीं सुहाता । वह नारी मुक्ति को शिक्षा रोजगार व स्वास्थ्य के बिन्दुओं से जोड़ना चाहती हैं । स्त्री को विविध आधुनिक रूपों में सक्रिय तो वह देखती ही हैं घर की चारदीवारी के भीतर उसकी वस्तुस्थिति का आकलन भी करती हैं । परम्परा से वह ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करती हैं कि स्त्री का मूल देदीप्यमान स्वरूप सामने हो आता है । वहां स्त्री ब्रह्मा है । वह नारी चेतना और नारी अस्मिता को करीने से व्याख्यायित करती है । निकट अतीत के उदाहरणों से अपनी बात को सत्यापित करते हुए नैतिक शिक्षा के मूल रूप की महत्ता स्थापित करती हैं । बताती है कि परम्पराएं क्या हैं और आवश्यक क्यों है? इस पुस्तक के 28 अध्याय एक प्रकार से एक नवीन स्त्री विमर्श की पैरवी करते हुए उसे भारतीय विचार–परम्परा से जोड़ते हैं । आज के समय इस पुस्तक का महत्त्व निसंदिग्ध रूप से यह है कि हर वर्ग की स्त्री को इससे एक वैचारिक संबल मिलेगा ।
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