गाँव तो मैं आज भी जाता हूँ लेकिन अब शायद वो पहले वाली बात नहीं। वो नदी अब भी बहती है पर उसकी धार में वो चंचलता नहीं रही। आम के बगीचे अब भी खड़े हैं पर उनकी मिठास कहीं खो सी गई है। लोग आज भी वही हैं गलियाँ भी वही हैं पर उनमें अब वो पुरानी पुकार नहीं गूंजती। हममें से जो गाँव की गलियों से दूर निकल आए हैं अक्सर अपनी तन्हाइयों में उन बीते पलों को याद करते हैं। यह पुस्तक एक कोशिश है हमें उन यादों के करीब ले जाने की उन जड़ों को महसूस करने की जहाँ से हम उखड़कर इस दुनिया में आ बसे हैं। जिन्होंने कभी गाँव का जीवन जिया है और जो शायद अपने बच्चों को वह अनुभव नहीं दे पाएंगे इस पुस्तक के माध्यम से उन्हें वह एहसास कराया जा सकता है—कैसा था हमारा बचपन कैसी थी गाँव की वो नदी आम के बगीचे की महक और गाँव की दोस्ती और यारी। यह किताब उन बीते दिनों की मिठास और सादगी का सफर है जो आज भी दिलों में बसती है। इस पुस्तक में गाँव के खेल हैं तो मेलों की रौनक भी। यहाँ शारदा काकी की प्यारी डांट है तो बारिश में भीगने का बेफिक्र आनंद भी। इसमें उस पुराने पीपल के पेड़ की छांव है और कल्लू हलवाई की दुकान की मिठास भी। यहाँ वो सारे रंग समेटे गए हैं जो अब वक्त की धुंध में कहीं खो से गए हैं। पढ़िए और फिर से जी लीजिए वो पल जिन्हें आप कभी पीछे छोड़ आए थे और महसूस करिए कि गाँव की मिट्टी और उसकी खुशबू अब भी हमारे भीतर बसी हुई है।
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