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About The Book
Description
Author
रोज केरकेट्टा सोशल एक्टिविस्ट हैं। झारखंड अलग राज्य के आंदोलन की एक अग्रणी नेता। इसी सामाजिक सरोकार ने उन्हें निरा कहानीकार बनने से रोका है। इस संग्रह की छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से वे लगभग उन तमाम सवालों को संबोधित-एड्रेस करती हैं जो आदिवासी समाज के जीवन और अस्तित्व का प्रश्न बना हुआ है। विस्थापन की पीड़ा पलायन की त्रासदी औद्योगीकरण से तबाह होता आदिवासी समाज गैर-आदिवासी समाज के बीच जगह बनाने के लिए एक आदिवासी युवती की जद्दोजेहद अपसंस्कृति का बढ़ता प्रभाव और पुरखों की अपनी विरासत से जुड़े रहने की अदम्य इच्छा ये सभी रोज की कहानियों की विषयवस्तु हैं। लेकिन उसी तरह कथानक में छुपा हुआ जैसे फूलों में सुगंध होती है। अपनी बात कहने के लिए किसी एक स्थान पर भी रोज उपदेशक नहीं बनतीं और न आदर्शों का बखान करती हैं। —विनोद कुमार सात दशकों की पृष्ठभूमि में लिखी ये कहानियाँ आदिवासी समाज की सच्ची तसवीर पेश करती हैं। आजादी के पहले जिस तरह के हालात थे परंपराएँ थीं आदिवासी जीवन-दर्शन था जल जंगल और जमीन से जुड़े रहने का जज्बा था अपनापन था—किस तरह उनमें तब्दीलियाँ आईं उन पर बाहरी माहौल परंपराओं संस्कृति के हमले हुए—इन तमाम हकीकतों की पृष्ठभूमि में इन कहानियों को बहुत ही सशक्त ढंग से उभारा गया है। विकास परियोजनाओं का दौर चला। उन परियोजनाओं में उनके खेत-खलिहान गाँव-घर डूबते चले गए और तब विस्थापन पलायन शोषण का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। आदिवासी समाज अब खुद को कहाँ पाता है—उनकी अस्मिता उनका अस्तित्व कहाँ रचता-बसता है—रोज की कहानियों में यही सब है और आदिवासी समाज की नई दिशाएँ भी जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। —पीटर पौल एक्का.