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About The Book
Description
Author
चाह उपन्यास के द्वारा मैंयह बताना चाहती ह ूँ कक अपनी संतान की परवररश बबना(ल ंग रंग रूप) भेदभाव के करनी चाहहए। बचपन में माता - पपता द्वारा हदए गए संस्कार और परवररश सम चे जीवन की नींव होते हैं। अत: जजतना हो सके इस नींव को प्रेम गुण संस्कार लशक्षा और अपनेपन की भावना से सींचचत करना चाहहए। पढा- ल खाकर अपनी संतान को काबब बनाना चाहहए। रही बात जीवनसाथी की तो अपने बच्चे के जीवन की बागडोर उन्हीं हाथों में सौंपने की कोलशश करनी चाहहए जो इन हाथों का सम्मान और सहयोग कर सके और गुणों के आधार पर उसी के समकक्ष हो। बेमे जीवनसाथी चुनकर उसे जीते जी नरक में नहीं धके ना चाहहए। इसी प्रकार जजस इंसान के अंदर का इंसान दम तोड़ चुका है उससे ककसी भी प्रकार की उम्मीद करना बेकार है। प्रत्येक मनुष्य को दया धमम परोपकार सहानुभ तत जैसे गुणों से स्वयं प्रकालशत होकर दस रों को भी उनकी रोशनी से सरोबार करना चाहहए । तभी सही अथों में इंसान होने की साथमकता लसद्ध होगी।(Through this novel ‘Chah’ I want to convey that we should care our children without any discrimination like sex colour form etc . Sacraments and upbringing given at childhood through their parents are foundation of their whole life. However possible we should accommodate this foundation by love virtue sacraments education and affinity. We should make children capable by making them educate. Talking about life partner we should try to hand over life of reins of our children in those hand which can do respect and cooperation of these hands. We should not push into hell by choosing the mismatched partner. In this way we should not try to expect anything from that person whose inner person had suffocated. Each and every person should treble other by their glimp by first lightening themselves by such qualities like mercy faith charity sympathy then in the true sense there a is significance of being human.)