संजय अलंग के पास संवेदना की अपनी अर्जित भाषा है जिसके सहारे हुए वह साहित्य का वितान रचते हैं। चाहे कविता हो या लोक जीवन। साहित्य संवेदना का वाहक है। मानव मन में करुणा को जाग्रत करने की प्रविधि। यही कारण है कि अपने प्रथम और महत्वपूर्ण उपन्यास में लेखक ने जीवन जगत में आने वाले संघर्षों की चर्चा के साथ जूझने का हौसला भी दिया है। संकट में किसी के साथ चलने का भाव विकसित करना ही सार्थक जीवन की परिभाषा है। एक माँ अपनी अस्वस्थ बच्ची के लिए जो संघर्ष करती है उसको मर्मस्पर्शी ढंग से रूपायित करता यह उपन्यास विमर्श का नया वातावरण बनाएगा। -गिरीश पंकज ‘चलो साथ चलें’ सामाजिक बिखराव टूटन अलगाव और विस्थापन के करुण दौर में समावेशी सोच की एक लीक से हटकर कथा है। एक बच्ची के अयाचित त्रासद जीवन की यह गाथा समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में उल्लेखनीय पहल है। -लीलाधर मंडलोई ‘चलो साथ चलें’ उपन्यास का विषय बहुत महत्वपूर्ण है जिस पर हिंदी में कम लिखा गया है। यह उपन्यास नए विमर्श को जन्म देगा। -ममता कालिया
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