कृष्णा जी का सबसे पहला उपन्यास है ‘चन्ना’ जिसे पिछली सदी के पाँचवें दशक में ही पाठकों तक पहुँच जाना था लेकिन यह नहीं हो सका। प्रकाशक ने एक नए लेखक की भाषा में बदलाव करने की कोशिश की तो लेखक ने अपने पाठ के शील-सौन्दर्य की रक्षा हेतु उसे वापस ले लिया। तब से अब तक विभाजन-पूर्व भारत के खेतिहर समाज और उस परिवेश में जन्म लेकर पलती-बढ़ती-लड़ती चन्ना की यह गाथा लेखक के तहखाने में खामोशी से इन्तज़ार करती रही। अब ‘चन्ना’ पाठकों के सामने है और अपनी चेतना के रूप स्वरुप से आपको हैरान करने जा रही है चन्ना का पारिवारिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य भारत के उस समय का है जब दुनिया के अग्रणी मुल्कों में भी स्त्री-स्वतंत्रता की बहुत सुगबुगाहट नहीं थी | लेकिन चन्ना ठीक उन्ही अर्थों में आधुनिक है जिन्हें हम आज जानते हैं | पैदाइश के वक़्त ही माँ की छाया से वंचित पिता के स्नेह से दूर नाना-नानी के प्यार-तले पली-बढ़ी चन्ना आजादखयाल है शिक्षित है और सबसे ज्यादा ध्यान देने लायक यह कि अपने अधिकार को लेकर सजग है | और यह अधिकार उसके व्यक्तित्व की हदों तक सीमित नहीं उन जमीनों और खेतों तक फैला है जिन्हें वह अपने पुरखों की ओर से मिला दायित्व भी मानती है | कृष्णा सोबती कभी भी उन स्त्रीवादी लेखकों में नहीं रहीं जो हिन्दी में अकसर फैशन में रहे। उन्होंने स्त्रीत्व और पुरुषत्व को दो अलग खाने कभी नहीं माना। उनका ज़ोर व्यक्ति के उस आत्मबोध को जगाने पर रहा है जो किसी भी देह में प्रकट होकर प्रकाश देता है—वह देह स्त्री की हो या पुरुष की। ‘चन्ना’ इसी आत्मबोध का साकार रूप है जिसे कृष्णा जी ने आज से लगभग सात दशक पहले गढ़ा था। यह अपनी ज़मीन अपनी विरासत से निकलती स्त्री है जिसे हम चन्ना की व्यक्ति-सत्ता में देखते हैं।
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